Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 50
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/४८ . सजल हैं। सहसा चमनलाल उनके पैर पकड़ कर साष्टांग औंधे मुंह पड़ रहता है। अमरचंदजी आँखें खोलते हैं। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा। वे उसे उठाते हैं, पर चमनलालजी टस से मस नहीं होते। अमरचंदजी प्रश्नवाचक दृष्टि से इन दोनों की ओर देखते रह जाते हैं। झूथारामजी व फतेहलाल पास ही जमीन पर बैठ जाते हैं।) ... झूथाराम - (भर्राये गले से) चमनलाल को मत उठाओ छोटा भाई। उनके आँसुओं को वह जाने दो। ये परिताप के आँसु हैं। इनके बह जाने में ही सबका कल्याण है। अमरचंद - क्या बात है बन्धु, क्या हो गया इन्हें ? आप भी उदास, फतेहलाल भी। आखिर क्या हो गया आप लोगों को ? जीवन संघर्षमय । सुख-दुख, जीवन-मरण नियति के निश्चित काम हैं। इनमें हर्ष विषाद कैसा ? फतेहलाल – पिताजी, (कहते हुए आँखें बरस पड़ती हैं)... अमरचंद - (कंधे से लगाकर) पागल हुये हो वत्स, यहाँ कौन किसका है ? ये सब शारीरिक सम्बन्ध हैं। संयोग-वियोग हुआ ही करते हैं। धर्मशाला में चन्द समय ठहरने वाले पथिकों की भाँति प्रत्येक परिवार के सदस्य भी मिलते-बिछुड़ते रहते हैं। झूथाराम – पर भैया, तुम जैसी आत्म-भावना सबने थोड़े की है। जो ज्ञान की किरण तुम्हारे हृदय में प्रज्वलित है, उसका यहाँ प्रादुर्भाव नहीं। तुमने वासनाओं का दमन करना सीखा है। नित्य संयम की अग्नि में तपकर तुम खरे सुवर्ण हो गये हो भैया। अमरचंद - इतना ऊँचा न उठाओ बड़े भाई, मुझ रागी में विराग की रेखा प्रस्फुटित भी नहीं हो पाई। झूथाराम - नहीं बंधु, आसक्ति को हटा विरक्ति को तुमने अपनी सहचरी बना लिया है। विरागता की ओर तुम्हारे लिए त्याग का पथ प्रशस्त है। हमारी तुम्हारी बराबरी कैसी ? कहाँ हीरा, कहाँ काँच ? दोनों में संतुलन असम्भव है।

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