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- जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/३२ अमरचन्द –'फिर भी अंधेरा बढ़ता जा रहा है। कुछ आदमी छावनी तक आपको पहँचाने चले जायेंगे, तो हानि नहीं। कहीं आज ही प्रयोग न हो जाये ?
स्मिथ - आपकी इच्छा। (दीवानजी पुनः बैठक में आकर गद्दी पर बैठ जाते हैं। पालथी मारकर दोनों हाथ घुटनों पर उल्टे रखे हैं। कुछ विचारने की मुद्रा में हैं। सेवक का प्रवेश, संध्या समय स्मिथ साहब के साथ निकल जाने के कारण वे भोजन नहीं कर पाये थे।).
. सेवक - सरकार ! रसौड़ा जीम लीजिए । मालकिन आपकी बाट देख रही हैं।
- अमरचन्द - (किंचित् चौंककर)अरे पागल ! जैनियों के घर रात्रिभोजन नहीं होता। मालकिन तुझे जिमाने बैठी होंगी।
सेवक - भूल हुई सरकार ! माफ करें।
अमरचन्द – कोई बात नहीं, अभी तुम नये-नये आये हो। जाओ, छोटे सरकार को भेज दो।
सेवक - जी। (जाता है।) (अमरचन्दजी उसी मुद्रा में बैठे रहते हैं। फतेहलाल का प्रवेश)
अमरचन्द - बैठ जाओ। देखो बेटा ! अपने घर कुछ नौकर रात्रिभोजन करते हैं, यह ठीक नहीं, इसे बंद करो।
फतेहलाल - जी, पिताजी, अभी जाकर माँ साहब से कह देता हूँ। कल से कोई भी रात्रि को नहीं खायेगा।
अमरचन्द – दूसरी बात यह है कि तुम खजांची से राजा साहब के नाम परचाना लिखवादो कि आज के दिन से दीवान अमरचन्द राज्य से वेतन नहीं लेंगे।
फतेहलाल - यह भी हो जायेगा। और कुछ ? अमरचन्द – चमनलाल लोहे वाले को जानते हो न ? उनका कारोबार