Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 44
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/४२ हम दखल देकर जटिलता न बढ़ावें। फिरंगियों का कोई कुचक्र जान पड़ता है। (दीवानजी से) क्षमा करें दीवान जी ! आपको कष्ट हुआ। (दुख भरे हृदय से सब चले जाते हैं।) दृश्य तृतीय (रात्रि का समय, स्थान अमरचन्दजी की हवेली) (अमरचन्दजी का वही पुराना बैठकखाना है। जमीन पर सुन्दर कालीन बिछा हुआ है। फतेहलालजी अत्यन्त उदास एवं व्यथित मन बैठे हैं। नागरिक, रिश्तेदारों के आने-जाने का तांता लगा है। कुछ सज्जन, नगर श्रेष्ठिगण सहानुभूति प्रदर्शन हेतु आये हैं।) श्रेष्ठि – फतेहलाल, रंज न करो भैया ! देखो छुड़ाने का कोई न कोई मार्ग अवश्य निकलेगा। (फतेहलाल के सजल नेत्र बरस पड़ते हैं।) दूसरा श्रेष्ठि - (साथियों से) क्या किया जाय ऐसी अचानक विपत्ति की कोई कल्पना तो थी नहीं। हाँ, आज कुछ दुःख बीमारी हो तो चिकित्सा करते, सेवा सुश्रुषा की जाती, पर अब जैसे निरुपाय से हो रहे हैं। (फतेहलाल की पीठ पर सान्त्वनात्मक हाथ फैरते हैं।) पहला श्रेष्ठ – पिता का दुःख भुलाये नहीं भूलता। धैर्य भी किनारा कर गया। बच्चा ही तो है अभी उम्र ही क्या है। फतेहलाल - (भरे गले से) चाचाजी ! अकस्मात् ही यह वज्र दुःख आ पड़ा है। भविष्य में क्या होगा ? कुछ समझ में नहीं आता। ___तीसरा श्रेष्ठि – सच है, जीवन ही एक पोथी है। ज्यों-ज्यों पृष्ठ उलटते जाओ, त्यों-त्यों रहस्य खुलता जाता है। दूसरा श्रेष्ठि - भैया ! तुम्हारे पिता के लिए तुम्हीं नहीं, वरन् समस्त जयपुर राज्य रो रहा है। उन जैसा व्यक्ति लाखों में एक ही था। तीसरा श्रेष्ठि - और ऐसे मनुष्य सदियों में एक ही होते हैं। धन्य हैं दीवानजी।

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