Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 42
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १८/४० जगतसिंह – त्यागवृत्ति एवं विरक्ति के लिए तो वे विश्रुत थे ही, परन्तु आज वह महान् वीर त्याग की पराकाष्ठा लाँघ गया । धन्य हैं अमरचन्द । मेरा कोटि-कोटि नमन है । उनके पद की पूर्ति इस जीवन में अब न देख सकूँगा । झूथाराम - मेरी बुद्धि अभी भी उपयुक्त कदम उठाने में सक्षम ज्ञात नहीं होती । महाराज ! मैं पंगु हो गया। मेरा मार्गदर्शक साथी मुझसे छूट गया । मेरी भुजा टूट गई महाराज । ( कपोलों पर अश्रु लुढ़क पड़ते हैं।) जगतसिंह – (दृढ़ता से) नहीं नहीं। एक बार अमरचन्दजी को छुड़ाकर पुन: पदासीन करूँगा, चाहे कितनी भी कठिनता क्यों न आवे ? उनका अभाव तनिक भी सह्य नहीं। दीवानजी याद है न आपको, मैं कितना शिकार खेलता था, निरीह मूक प्राणियों पर निशाना साध उन्हें तड़पते देखकर प्रसन्न होता था। अपने पर-प्राण पीड़न कौशल की सफलता पर मुझे गर्व था । (ठंडी साँस लेकर) आह ! अब सोचता हूँ तो शरीर में रोमांच हो जाता है। कितनी घृणित पैशाचिक वृत्ति थी मेरी । अमरचन्दजी ने मेरे हृदय में करुणा का सागर लहरा दिया। मुझे सच्चा भूपति बनाया । मैं प्रजा भक्षक से रक्षक बना, वे राज्य के सज़ग प्रहरी बन मुझे सही मार्गवलोकन कराते रहे। झूथाराम - सत्य पर अग्रसर होना उनका एकमात्र लक्ष्य था । सर्वगुण सम्पन्नता उनको ईश्वरीय देन थी । जगतसिंह - दीवानजी ! (आदेशात्मक स्वर से व्यग्र हो ) अपराधी की जाँच-पड़ताल शीघ्रता से हो, ताकि अमरचन्दजी का छुड़ाया जा सके। इसके पूर्व कि फिरंगी कोई गलत कदम न उठाने पाये एवं हम भी केवल पश्चात्ताप करने हेतु बाध्य न रहें। झूथाराम - प्रयत्न ऐसा ही कर रहे हैं महाराज ! ( सामूहिक कोलाहल सुनाई पड़ता है। दोनों चौकन्ने हो जाते हैं। शनै: शनै: ध्वनि तीव्रतर होती जाती है। कुद्ध भीड़ चिल्लाती है।) नेपथ्य से - हम राजा साहब और दीवानजी से मिलना चाहते हैं । हमारे

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