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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/३९ अमरचन्द : (हँसकर) अच्छी तरह एजेन्ट साहब ! मुझे शीघ्रातिशीघ्र साँगानेर ले चलिये; ताकि दीवान भाई के सन्मुख अन्य अपराधियों की खोज की नई समस्या न उपस्थित हो जाये। (कुछ क्षण के लिये आँख मूंदकर ध्यानस्थ हो जाते हैं। प्रभु स्मरण कर परोक्ष नमस्कार करते हैं। फिर खड़े होकर राजा साहब व झूथारामजी को लक्ष्य करते हुए कहते हैं।)
मेरे आत्म बन्धुओ ! जीवन भर के अपराधों की क्षमा चाहता हूँ। जाने अनजाने में प्रमादवश जो भूलें हुई हैं, उनको भूल जाइये एवं क्षमा प्रदान कर मुझे कृतार्थ कीजिए।
(राजा साहब व झूथारामजी के नेत्र सजल हो उठते हैं। चाहते हुए भी उनके मुख से बोल नहीं निकलते। उत्तर में वे केवल जड़वत् दोनों हाथ जोड़ लेते हैं)
अमरचन्द : चलिये साहब !
एजेन्ट : टुमने स्मिथ साहब का मर्डर कर बरा भारी जुर्म कर अच्छा नेई किया। (कुछ सख्ती से चारों चले जाते हैं)
(कुछ क्षण दोनों व्यक्ति मौन रहते हैं)
जगतसिंह - दीवानजी ! अमरचन्दजी साहब सीने में मर्मभेदी घाव कर गये।
झूथाराम - हाँ महाराज ! उन्होंने अपना अगला कदम उठाने के पहले कुछ आभास भी न होने दिया। कदाचित् सोच-विचार करने पर कोई दूसरा मार्ग निकल आता।
जगतसिंह – (आँसू पोंछते हुए) नि:शक था वह वीर । आज जयपुर राज्य सूना हो गया, दीवानजी सूना हो गया।
झूथाराम - अमरचन्दजी जन-जन के प्यारे थे महाराज ! घर-घर उनके गीत गाये जाते हैं। उनकी दयालुता, दानवृत्ति, परोपकारिता से जयपुर का बच्चा-बच्चा परिचित है। आज जयपुर उनका ऋणी है। उनकी इस सरलता पर तो महान् देश भी लाख-लाख बार न्योछावर है।