Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 46
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/४४ फतेहलाल-आपका मतलब समझ नहीं रहा हूँचमनलालजी। (उठाते हुये) उठिये तो सही। चमनलाल - स्मिथ का खून मैंने किया है भैया, मैं दोषी हूँ, हत्यारा हूँ। राजभक्ति के पागलपन ने मेरे विवेक की आँखें फोड़ दीं। मैं अंधा हो गया। भैया उन्हें छुड़ा लाओ। वह स्थान मुझ पापी का है। हाय ! मुझ से महान् अनर्थ हो गया। (फतेहलाल किंकर्तव्यविमूढ़ हो चमनलाल की तरफ एकटक देखते रह जाते हैं।) ___ चमनलाल - (खड़े होकर) देख क्या रहे हो फतेहलाल ! शीघ्रता करो भाई । क्षण-क्षण मूल्यवान है। कहीं ऐसा न हो कि कोई और भयंकर अनर्थ घट जाये। और मैं आजीवन तिल-तिल जलकर भी कुछ न कर पाऊँ। फतेहलाल - (सावधान होकर) चलिये चमनलालजी। ताऊजी के पास चला जाये। उनकी सम्मति यथेष्ट रहेगी। दृश्य चतुर्थ स्थान – झूथारामजी की हवेली। (झूथारामजी अभी-अभी राजा जगतसिंहजी के पास से आये हैं। दोनों में गुप्त-मंत्रणा अवश्य होती रही है पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे। आज की वार्ता कल पर छोड़ वे घर आये। मन खिन्न व उद्विग्न जान पड़ता है। पगड़ी उतारकर वे खूटी पर टाँग रहे थे कि चमनलाल के साथ फतेहलाल पहुँचते हैं।) झूथाराम - (देखते ही) अरे ! आप लोग इस समय यहाँ कैसे ? बैठोबैठो। (तीनों तख्त पर बैठ जाते हैं। चमनलाल नतमस्तक है।) फतेहलाल - ताऊजी ! आपका कहना है कि कप्तान स्मिथ का खून मैंने ही किया है। झूथाराम – (मुख पर प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती है) सच, तुमने

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