Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 32
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १८/३० अंतर नहीं। यह जो शरीर के आकार-प्रकार का अंतर दिखता है वह पौद्गलिक विकार है, कर्मजनित उपाधियाँ है । जैन शुद्ध अहिंसक होते है वे चींटी मारना भी बुरा समझते हैं। अंत:करण की विशुद्धता आवश्यक है। ++++ स्मिथ – आपने उसे दो दिन से माँस खाने को नहीं दिया । अतएव आप उसके शत्रु कहलाये । कहावत है - “ भूखा आदमी शेर बराबर " फिर वह तो साक्षात् भूखा शेर था । अरे बाप रे.. मेरे तो होश गायब हो जाते। अमरचन्द यह सच है कि मैंने उसे माँस नहीं दिया, पर क्षुधा निवारणार्थ पकवान मिष्ट भोजन तो दिया । वह उन्हें खाकर भी उदर की ज्वाला शमन कर सकता था । - स्मिथ – बेचारा; जन्मजात संस्कारों के अनुसार माँस से ही तृप्त हो सकता था, इसमें उसका अपराध नहीं दीवानजी । अमरचन्द आपका कथन यथार्थ है । जब वह अपना स्वभाव नहीं छोड़ना चाहता तो मैं ही क्यों अपना स्वभाव परिवर्तित करूँ ? एक प्राणी की तृप्ति हेतु अनेक प्राणियों का वध । उदर पूर्ति के लिए हिंसा ही अनिवार्य नहीं । - स्मिथ – खैर, ये तो रहे आपके सिद्धांत। पशु इन सब बातों का क्या समझे ? अमरचन्द कप्तान साहब ! मनोवैज्ञानिक प्रभाव मनुष्य, पशु-पक्षी यहाँ तक कि फल-फूल वनस्पति पर समान रूप से पड़ता है । फिर उसे मुझसे शत्रुता का अंदेशा होता कैसे ? स्मिथ – आपकी प्रत्येक अनुभव-गत बात को ठीक मानता हूँ। इतने पर उसका टूट पड़ना असंभव नहीं था दीवानजी ! अमरचन्द – तब फिर प्रयोग हो जाता। जीवन भर की दृढ़ता की परीक्षा हो जाती । स्मिथ - तो क्या आपको मौत की छाया से भय नहीं लगता दीवान साहब !

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