Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 30
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/२८ संयम धारण कर मुनि हो गये थे तथा तपस्या और ध्यान से उन दोनों को । केवलज्ञानरूपी नेत्र प्राप्त हुए थे अर्थात् दोनों को उसी समय केवलज्ञान प्रगट हुआ था। वे दोनों भगवान देवोपुनीत गंधकुटी में भी रत्नजड़ित सिंहासन से चार अंगुल ऊपर विराजमान थे। उनके ऊपर चंवर ढुल रहे थे, बहुत प्रकार की विभूति उत्पन्न हुई थी। वे अष्ट-प्रतिहार्यों के मध्य विराजमान थे। असंख्य देवगण उनकी सेवा कर रहे थे। वे चार संघों से सुशोभित थे। समस्त जीवों के हित का उपदेश उनके द्वारा प्रसारित हो रहा था। अनेक प्रकार से उनकी महिमा थी। समस्त इन्द्र एकसाथ मिलकर उन दोनों जिनराज भगवंतों की पूजा कर रहे थे। उनको अनन्तसुख प्राप्त हो गया था तथा अनेक मुनिराज उनको वंदन कर रहे थे। उन दोनों के दर्शन करके वह देव विचारने लगा – अहा ! आश्चर्य है !! कहाँ तो भय से व्याकुल विषयांध विद्याधर और कहाँ देवों द्वारा पूजित तीन लोक के नाथ सर्वज्ञदेव! कहाँ तो मेरे वृद्ध पिता और कहाँ सर्व पदार्थों को एकसाथ देखने वाले श्री केवली भगवान ! संसार में बड़े-बड़े पुरुषों को भी आश्चर्य उत्पन्न होने योग्य बात है। अहा ! पहले मुनिराज ने कहा था कि जीव में अनन्त शक्ति है वह मिथ्या कैसे हो? क्योंकि मैंने इस समय वह शक्ति साक्षात् देखी। इसप्रकार मन में चिन्तवन करते-करते केवली को तीन प्रदक्षिणा देकर मस्तक झुकाकर वन्दन किया तथा उनके गुणगान गाते हुए स्तुति की और स्वर्गलोक के दिव्य द्रव्यों से भक्तिपूर्वक पूजा की और आश्चर्यकारी धर्म से प्रसन्न होकर वह देव स्वर्ग में गया। इसप्रकार, परस्त्री हरण करने वाले मोहान्ध नलिनकेतु ने उसी भव में सादि-अनन्तं सुख को प्राप्त किया और पूर्व के स्नेह के संस्कार वश शान्तिमति विद्याधारी पर कामासक्त होने वाले अजितसेन विद्याधर तथा उससे बदला लेने को तत्पर हुए शान्तिमति के पिता भी शाश्वत सुख को प्राप्त हुए - यह सब अनन्तशक्ति स्वरूप चैतन्य की शरण/अनुभूति का ही चमत्कार है। - शान्तिनाथ पुराण के आधार से

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