Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 35
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/३३ बिगड़ गया है। पारिवारिक समस्या गंभीर हो उठी है। खानदानी आदमी हैं। उनको सहयोग देना परमावश्यक है। पूर्व पुण्य की प्रबलता के संयोग से अपने घर प्रचुर धन है, उसका सदुपयोग होना चाहिये। अतएव सौ लड्डुओं का टोकरा भेज दो, प्रत्येक लड्डु में एक-एक अशर्फी रहे। (पुत्र फतेहलाल पिताजी की त्यागवृत्ति से पूर्णत: परिचित थे और रात के अंधेरे में दान करने के चिर अभ्यस्त) इसलिए तुरन्त कहा - फतेहलाल – कल प्रातः ही आपकी आज्ञा का पालन होगा। आप निश्चित रहें पिताजी। अमरचन्द - तुम जाओ। अब मैं तनिक राजकाज का हिसाब देख लूँ। कल सब निबटा देना है। और कल ही तुम्हें सब समझा दूंगा। फतेहलाल -जी ! (उठकर जाने लगते हैं, इतने में बड़े दीवान झूथाराम जी दरवाजे पर दिखाई देते हैं। हाथ जोड़कर) ताऊजी, इतनी रात गये आपने कष्ट किया ? क्यों न मुझे ही बुलवा लिया होता ? (अमरचन्दजी की दृष्टि झूथारामजी पर जाती है और खड़े हो जाते हैं) झूथाराम – कप्तान स्मिथ साहब अभी-अभी आपके पास से गये थे न ? किसी ने उन्हें पीछे से पीठ में छुरा भोंक दिया। अमरचन्द - (आश्चर्य से) छुरा भोंक दिया ! बुरा हुआ भैया ! मैं उनके साथ आदमी भेज रहा था, पर वे न माने (गहरी उसांस ले) लाश कहाँ है ? झूथाराम – सड़क से उठवाकर पीलखाने में रखवा दी है। राजा साहब को खबर देने के पहले मैंने आपको बतला देना भी उपयुक्त समझा। अमरचन्द - (दुखित होकर) अच्छा किया। अब जल्दी से जल्दी अपराधी और लाश दोनों को एक साथ फिरंगियों के सुपुर्द किया जा सके। झूथाराम – एक टुकड़ी इसी काम के लिए नियुक्त करके आ रहा हूँ। पर इसका कुछ राजनैतिक कुफल न निकले। दरअसल यही चिंता है।

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