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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/२३ है। इसमें एक कच्छ नाम का मनोहर देश है और उसमें एक विजयार्द्ध पर्वत है। उसकी उत्तर श्रेणी के शुकप्रभ नगर में अपने पूर्व संचित धर्म के प्रभाव से इन्द्रदत्त नाम का विद्याधर राज्य करता था। उसकी शुभ लक्षणों वाली यशोधरा नाम की रानी थी। उसका मैं वायुवेग नाम का पुत्र हूँ तथा समस्त विद्याधर मेरी आज्ञा मानते हैं।
उसी श्रेणी के किन्नरगीत नाम के नगर में चित्रचूल का नाम विद्याधर राज्य करता था, उसकी सुकान्ता नाम की पुत्री थी। सुकान्ता का विवाह विधिपूर्वक मुझसे हुआ, उसके गर्भ से यह शान्तिमति नाम की शीलवती पुत्री उत्पन्न हुई है। यह भोग तथा धर्म की सिद्धि के लिये पूजा की सामग्री लेकर मुनिसागर पर्वत पर विद्या सिद्ध करने गई थी। जब विद्या साध रही थी, उस समय यह दुष्ट कामातुर पापी उस विद्या सिद्धि में विघ्न डालने आया, परन्तु पुण्यकर्मोदय से सब कार्य सिद्ध करने वाली तथा सुख प्रदायिनी सारभूत वह विद्या मेरी इस पुत्री को उसी समय प्राप्त हो गई। यह पापी विद्या के भय से तुम्हारी शरण में आया है तथा मेरी पुत्री भी क्रोधवश इसे मारने के लिये पीछे-पीछे आई है। जब मैं विद्या की पूजा सामग्री लेकर वहाँ पहुँचा तब वहाँ अपनी पुत्री को न देखकर इसी मार्ग से मैं भी पीछे-पीछे यहाँ आया हूँ। हे नाथ ! इसप्रकार अपनी वास्तविकता आप से कही है। अब आप इस दुष्ट के लिये जो कुछ उचित समझें, करें।
उसकी यह बात सुनकर वह अवधिज्ञानी चक्रवर्ती महाराज कहने लगे कि विद्या सिद्ध करने में विघ्न डाला था वह मैं जानता हूँ, परन्तु इससे पूर्व में क्या हुआ, वह सुनो। इसी जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में गंधार देश के विन्ध्यपुरी नगर में विन्ध्यसेन नाम का राजा राज्य करता था। उसके सुलक्षणों वाली सुलक्षणा नाम की रानी थी। इन दोनों के नलिनकेतु नाम का पुत्र था। उसी नगर में धनदत्त नाम धनी वैश्य रहता था। उसकी स्त्री का नाम श्रीदत्ता था। उन दोनों के सुदत्त नाम का पुत्र था तथा प्रीतिकरा नाम की उसकी स्त्री थी। वह स्त्री रूप, लावण्य तथा गुणों की निधान थी।
एक दिन प्रीतिकरा वनभ्रमण के लिये गई। वहाँ राजपुत्र नलिनकेतु की