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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/२१ किये बिना ही नगर से वापस वन में आकर यहाँ वृक्ष के नीचे जा बैठे। बाह्य कारण मिलने से उनके हृदय में तीव्र क्रोध कषाय उत्पन्न हुई, संक्लेश परिणामों से अशुभ लैश्या वृद्धिंगत हुई। जो मंत्री आदि प्रतिकूल हुए हैं उनका हिंसा आदि किसी भी प्रकार से निग्रह करने का चिन्तन करने से इस समय वे संरक्षा नामक रौद्रध्यान में दाखिल हुए हैं।
यह सुनकर राजा श्रेणिक ने पुनः पूछा कि प्रभो ! इन परिणामों का फल क्या होगा ? तब गणधर देव बोले- यदि अब आगे अन्तर्मुहूर्त तक उनकी यही स्थिति रही, तो वे नरकायु का बन्धन करने योग्य हो जायेंगे। अतः हे श्रेणिक ! तुम शीघ्र जाओ और उन्हें स्थितिकरण कराओ, उन्हें सम्बोधित करो कि “हे साधु ! शीघ्र ही यह अशुभध्यान छोड़ो, क्रोधरूप अग्नि को शांत करो, मोह के जाल को दूर करो, तुमने जो यह मोक्ष के कारणरूप संयम धारण करके भी इस समय इसे छोड़ रखा है, अतः सावधान होकर फिर से उसे अंगीकार करो। यह स्त्री, पुत्र, भाई आदि का सम्बन्ध अमनोज्ञ है और संसार को बढ़ाने वाला है - इत्यादि युक्तिपूर्ण बातों से तुम मुनिराज का स्थितिकरण करो। जिससे वे फिर स्वरूप में स्थिर होकर शुक्लध्यानरूप अग्नि से घातिया कर्मरूपी सघन वन को भस्म कर देंगे और केवलज्ञान आदि लब्धियों से दैदीप्यमान शुद्धस्वभाव के धारक हो जायेंगे। ___गणधर महाराज के ऐसे वचन सुनकर राजा श्रेणिक शीघ्र ही उन मुनिराज के पास गये और गणधर महाराज द्वारा बताये मार्ग से उन्हें सम्बोधित किया, इससे उन मुनिराज ने तुरन्त क्षपकश्रेणी आरोहण कर शुक्लध्यान से केवलज्ञान प्राप्त किया। देखो ! परिणामों की कैसी विचित्र योग्यता है कि घड़ी भर पहले नरक के परिणाम हो रहे थे और घड़ी भर पश्चात् केवलज्ञान की प्राप्ति !
अहो ! कार्य तो अपनी योग्यता से हुआ ही है, फिर भी यहाँ यह कथन हमें स्थितिकरण का बोध देता है। हम भी अनादिकाल से अपने स्वरूप से च्युत होकर भटक रहे हैं, अतः स्वरूप स्थिरतारूप स्वयं का स्थितिकरण करना, वही वास्तविक स्थितिकरण है - यह निमित्तप्रधान शैली से किया गया कथन है। ...... - बोधि समाधि निधान से साभार