Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 14
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/१२ ही कह कि सेठ कैसा लगता है ? क्या तूने उसके जैसा दूसरा पुरुष देखा है ? दासी ने कहा कि महारानीजी ! तुम्हारा अनुमान सत्य है। पृथ्वी पर तो क्या सम्पूर्ण त्रिभुवन में भी उसके समान सुन्दर युवक मिलने वाला नहीं है। वह सचमुच ही सुन्दर पुरुषों का सिरताज है। रानी ने दासी को अपने अनुकूल जानकर कहा कि तू मेरा एक काम कर सकेगी ? सत्य मान, मैं तुझे अपनी अन्तरंग दासी मानकर कहती हूँ, यह बात किसी के सामने प्रकट न हो जाये । दासी ने कहा कि मैं तो तुम्हारी दासी हूँ, क्या आज्ञा है कहो ? मैं कार्य पूरा करने के लिये तैयार हूँ। रानी ने कहा कि तू कार्य कर सकेगी। दासी ने सोचकर कहा कि महारानीजी ! आप मुझ पर विश्वास रखो। मेरे से जहाँ तक बनेगा मैं आज्ञा का पालन करूँगी। तब रानी अपनी भावी आशा पर फूली नहीं समाई और वह भविष्य की अविचारितरम्य कल्पनाएँ करने लगी। तत्पश्चात् रानी व्यग्रता प्रकट करने लगी कि मैं उस नवयुवक पर तन-मन से मोहित हूँ। जब से मैंने उसे देखा है तभी से वह मेरी नजरों में समा गया है। मेरा हृदय उस पर न्योछावर हो रहा है। बस, तू ऐसा प्रयत्न कर कि वह सुन्दर सेठ मेरे पास आवे, अन्यथा मेरा जीवन व्यर्थ है। ध्यान रहे, यह गुप्त बात तेरे सिवाय अन्य कोई नहीं जान पाये अन्यथा... कहकर रानी चुप हो गई। दासी फूलकर फुग्गा हो गई। उसने विचार किया कि मेरा भाग्य भी चमक जायेगा। मैं मालामाल हो जाऊँगी। काम से पीड़ित रानी मेरे चंगुल में फंस गई है। ऐसा विचारकर वह रानी से कहने लगी कि तुम इतनी छोटीसी बात से परेशान क्यों होती हो ? बात ही बात में मैं तुम्हारे दिल के अरमान पूरे कर दूंगी। संसार में ऐसी कौनसी वस्तु है, जो तुमको नहीं मिल सकती? तुम विश्वास रखो, दुखी मत होओ, तुम्हारे मन की मुराद अवश्य पूर्ण होगी और शीघ्र ही होगी। इधर सेठ सुदर्शन ने श्रावक के व्रत धारण किये थे। वे संसार में रहते हुए भी उससे मुक्त होना चाहते थे, अतः वह कभी ध्यान में बैठ जाते तो कभी स्वाध्याय में मग्न रहते। अष्टमी तथा चर्तुदशी को तो वे रात्रि के अंतिम

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