Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 18
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/१६ हो गये। उसी समय आकाश में से देवों ने तपस्वी सुदर्शन की जय-जयकार करते हुए पुष्पवृष्टि की और इसप्रकार स्तुति की “हे शीलवती सुदर्शन आप धन्य हैं ! आज संसार में तुम्हारे समान कोई भी ऐसे शीलव्रत का धारी नहीं है, तुम्हारा ब्रह्मचर्य व्रत अतुलनीय है, तुम्हारा हृदय सुमेरु के समान अचल है, तुमने अखण्ड ब्रह्मचर्य से अलौकिक कार्य किया है, जिसकी उपमा तीनभुवन के इतिहास में नहीं मिलती।" - इसप्रकार देवों ने पुष्पवृष्टि की और श्रद्धा-भक्ति से उनकी पूजा की। इधर सेवकों ने तपस्वी सुदर्शन के प्रभाव का वर्णन जाकर महाराज को सुनाया। तब महाराज ने भी विलम्ब न करते हुए शीघ्र ही सेठ सुदर्शन के समाने पहुंचकर अपने अपराध की क्षमा याचना की। इस घटना के पहले से ही विरक्त सेठ सुदर्शन के हृदय में संसार से अत्यन्त विरक्तभाव उत्पन्न हो गया। उन्होंने तुरन्त अपने पुत्र सुकान्तवाहन को घर का भार सौंपकर, संसार पूजित विमलवाहन महामुनि के समीप जाकर जिनदीक्षा अंगीकार कर ली। राजा के भय से रानी ने अपघात कर लिया और दासी भागकर पटना पहुँच गई। वह पटना की समस्त गणिकाओं और नगर की स्त्रियों को अपने स्वदेश त्याग की तथा रानी और सुदर्शन की कथा कहती हुई देवदत्ता वैश्या के यहाँ रहने लगी। पटना की जनता को भी दासी की बात सुनकर मन में बहुत आश्चर्य हुआ और वह ऐसे दृढ़शील के धारी सेठ सुदर्शन, जो मुनि हो गये हैं, उनके दर्शन करने की भावना करती हुई उनके आगमन की प्रतीक्षा करने लगी। एक समय की बात है कि अत्यन्त धीर गंभीर शीलवान सुदर्शन मुनि विहार करते-करते पटना आ पहुँचे। सुदर्शन मुनि का शरीर अनेक उपवासों के कारण अत्यन्त शिथिल हो गया। एक दिन दासी ने मुनि को पारणा के लिये राजमार्ग से आते देखा, वह देवदत्ता वैश्या से कहने लगी हे सुन्दरी!

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