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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/१५ आता ही है। अत: अपयश व मौत आदि के भय से कभी भी शीलादि धर्म में दोष उत्पन्न नहीं करना चाहिए।"
- इसप्रकार विचार करते हुए सेठ सुदर्शन अपने शीलधर्म से किंचित् भी विचलित नहीं हुए और न ही अपनी जान की कीमत पर भी कोई बात अपने बचाव में कही। - इसप्रकार सेठ सुदर्शन दृढनिश्चय करके ध्यानमग्न हो गये।
धन्य हैं सुदर्शन सेठ ! आपकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है। भला आज ऐसा कौन संसारी होगा जो सुन्दरियों द्वारा अनेक प्रकार की विनती करने पर भी उनके प्रस्ताव को ठुकरा दे ? वह भी अपने अपयश और मरण की कीमत पर । अहो ! संसार से उदासीन होकर ब्रह्मचर्य की रक्षा करके सुन्दरियों के बाहुपाश से बचकर अपने सदाचार की रक्षा करना तपस्वी सुदर्शन का ही कार्य है।
रानी अपने लाख प्रयत्न करके थक गई, परन्तु सेठ सुदर्शन का व्रत भंग नहीं हुआ। रानी अपनी वासना पूर्ण नहीं होने से दुखी होकर अपनी गलती का पता राजा को न चल जाय – इस भय से सेठ सुदर्शन को फंसाने के लिये षड़यंत्र रचने लगी। वह अपने शरीर पर नख द्वारा जख्म करके चिल्लाने लगी – “अरे ! दौड़ो, बचाओ, पापी से मुझे बचाओ।" बस, उसका यह दूसरा षड़यंत्र कुछ समय के लिए सफल हो गया। तपस्वी सुदर्शन को महल में ही पकड़ लिया गया और पकड़कर महाराज के सामने पहुंचा दिया गया। देखा स्त्रीचरित्र ! थोड़े समय पूर्व क्या बात थी और अब क्या हो गया ? दुराचारी रानी ने सफल न होने से निर्दोष ब्रह्मचारी सुदर्शन को अपराधी बना दिया। महाराज ने सुदर्शन के बारे में सुना तो अत्यन्त क्रोधित होकर उसे फाँसी की सजा सुना दी। ___यहाँ महाराज का हुक्म हुआ -“दुष्ट पापी को मार दो।" जल्लाद तपस्वी सुदर्शन को मारने के लिये श्मशान भूमि में ले गये। ज्यों ही उसे मारने के लिये जल्लादों की तलवार उठी, परन्तु सुदर्शन की गर्दन पर बार खाली गया। तलवार सुदर्शन की गर्दन पर फूल की तरह पड़ी। सब आश्चर्यचकित