Book Title: Jain Dharm Ka Jivan Sandesh Author(s): Devendramuni Publisher: Tarak Guru Jain GranthalayPage 13
________________ ११ है। एक के अभाव में दूसरी पंगु के समान हो जाती है। प्रवृत्ति, जहाँ अध्यात्म के क्षेत्र में प्रगति की दिशा-निर्देशक बनती है, वहीं व्यावहारिक जीवन को भी उन्नत करती है । जैन शास्त्रों में सम्यग्ज्ञान - दर्शन - चारित्र को रत्न-त्रय की संज्ञा से अभिहित किया गया है । रत्न स्वयं प्रकाशित होता है, उसे अन्य प्रकाश की अपेक्षा नहीं होती । वह स्वयं प्रकाशित होकर व्यक्ति के जीवन को भी प्रकाश से भर देता है, उसके जीवन व्यवहार में चमक आ जाती है । गोस्वामी तुलसीदास का एक दोहा हैराम नाम मणि दीप-धर, जीह देहरी द्वार। तुलसी भीतर बाहिरो, जो चाहसि उजियार ॥ जैन दर्शन में यह रत्नत्रय - राम नाम रूप मणि है जो जीवन के बाहरी एवं आन्तरिक दोनों क्षेत्रों में ही प्रकाश देती है। मणि अथवा रत्न के समान सम्यग्ज्ञानादि भीPage Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68