Book Title: Jain Dharm Ka Jivan Sandesh
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 55
________________ सुख-दुख-समभाव और साहस एवं पुरुषार्थ आदि गुणों को बनाए रखता है और हताशानिराशा, भग्नाशा जैसी निम्न कोटि की वृत्तियों को उसके पास नहीं आने देता। मुक्ति-प्राप्ति में सहायक कर्म सिद्धान्त के ज्ञान का प्रयोजन भगवान महावीर ने सूत्रकृतांग सूत्र में इस प्रकार बताया है बुज्झिज्ज तिउट्टिज्जा, बंधणं परिजाणिया। -मानवो । तुम्हें बोध प्राप्त करना चाहिए और बंधन (कर्मबन्धन) को तोड़ना चाहिए। __ कर्मबन्धन को तोड़ने या टूटने का अर्थ आत्मिक शुद्धि में वृद्धि-आत्मा की उन्नति है। जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त तूंबा सागर-तल में नीचे बैठ जाता है, पतन को प्राप्त होता है। उसी प्रकार कर्मरज से लिप्त आत्मा भी पतित हो जाता है, बोझिल हो जाता है और जिस प्रकार मिट्टी के लेप हट जाने से तुम्बा सागर तल पर तैरने लगता है, इसी प्रकार आत्मा भी कर्मरज के हट जाने से हल्का होकर

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