Book Title: Jain Dharm Ka Jivan Sandesh
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 57
________________ - जैन धर्म का घोषित सिद्धान्त है- अप्पा सो परमप्पा-आत्मा ही परमात्मा है। एक कवि के शब्दों मेंसिद्धां जैसो जीव है, जीव सो ही सिद्ध होय। कर्म मैल का आंतरा, बूझै बिरला कोय ॥ सिद्ध और संसारी आत्मा गुणों की दृष्टि से दोनों ही एक समान हैं; सिर्फ कर्ममल का ही अन्तर अथवा फर्क है। जीव जब अपने पुरुषार्थ से- रत्नत्रय की साधना से कर्म-मल को हटा देता है तो यह जीव ही परमात्मा बन जाता है। जैसे वस्त्र मैला हो गया, उसे साबुन क्षार आदि और जल के संयोग से धोया तो वह साफ हो गया। यही दशा जीव की है वह कर्म-मल के संयोग से गन्दा हो रहा है, कीचड़ में लिप्त हो रहा है, रत्नत्रय रूपी साबुन, क्षार और तपरूपी जल से धोने पर वह स्वच्छ हो जाता है। आत्म-स्वातंत्र्य नीतिशास्त्र का भी एक प्रत्यय है; लेकिन वहाँ विशेष रूप से अपनी इच्छा-पूर्ति तक ही सीमित है। गीता के

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