Book Title: Jain Dharm Ka Jivan Sandesh Author(s): Devendramuni Publisher: Tarak Guru Jain GranthalayPage 54
________________ ५२ वह अपने दुर्दिनों में अधिक व्यथित नहीं होता। इसी प्रकार वह सुख के दिनों में, अनुकूल परिस्थितियों में गुब्बारे की तरह नहीं फूलता, क्योंकि वह जानता है कि जब तक पुण्य का उदय है, भाग्य अनुकूल है तभी तक ये ठाठ-बाट हैं, पत्नी अनुकूल है, स्वजनसम्बन्धी भी मेरी पूछ करते हैं, समाज मुझे आदर प्रदान करता है और जिस दिन भी अशुभ कर्मों का झकझोरा आया, भाग्य प्रतिकूल हुआ कि ये ठाठ-बाट संध्या की लालिमा के समान अन्धकार में डूब जायेंगे, ये ऊँचे-ऊँचे भवन ताश के पत्तों की तरह बिखर जायेंगे, मेरी कोई बात भी नहीं पूछेगा, पारिवारिक जन मुझे दूध में पड़ी मक्खी के समान निकालकर फेंक देंगे। अतः वह सुख में मग्न होकर अहंकारी नहीं बनता। __ इस प्रकार कर्म सिद्धान्त मानव को एक ओर अहंकार, मान, गर्व से बचाता है तो दूसरी उसके मन-मस्तिष्क में हीन-ग्रन्थि भी नहीं पनपने देता। दीनता व निराशा रक्षा करता है। यह सिद्धान्त मानव में धैर्य, तितिक्षा,Page Navigation
1 ... 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68