Book Title: Jain Dharm Ka Jivan Sandesh Author(s): Devendramuni Publisher: Tarak Guru Jain GranthalayPage 32
________________ ३० भरमार और धन को निरन्तर वृद्धिंगत करता जाय और दूसरी ओर मुख से यह प्रचारित करे कि मुझे इन वस्तुओं में कोई ममत्व नहीं है। यह तो विडम्बना ही होगी। व्यक्ति के द्वैध चरित्र का ही प्रगटीकरण होगा। वस्तुतः ममत्वभाव का अभिप्राय हैस्वामित्व-भाव, मेरा और मेरेपन की छाप। जब तक मनुष्य के मन में है कि-यह कोठी, कार आदि वस्तुएँ मेरी है, मैं इनका स्वामी हूँ, मैंने अपने बुद्धि, कौशल, परिश्रम और भाग्य संयोग से उपार्जित किया, मेरे पास इतनी संपत्ति है, मेरे पास इतना धन आदि है; तब तक वह अपरिग्रही नहीं है, उसे परिग्रही ही कहा जायेगा। __ आधुनिक युग की यह विचित्रता ही है कि नित नयी वस्तुओं का आविष्कार हो रहा है। और यह भी सत्य है कि वे वस्तुएँ जीवन में सुख-सुविधा का साधन बनती हैं। इसी कारण व्यक्ति उनकी ओर ललचाता है और उन्हें खरीद लेता है। परिग्रह, लोभ-लालच-लिप्सा-लिप्तता काPage Navigation
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