Book Title: Jain Dharm Ka Jivan Sandesh
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

Previous | Next

Page 46
________________ रहती। इसी कारण वह स्वयं न किसी संघर्ष में उलझता है और न अपने किसी क्रिया-कलाप से ऐसी स्थितियाँ ही उत्पन्न करता है, जिनमें किसी प्रकार का संघर्ष, विरोध, विप्लव आदि पनप सके। समताभावी जीव के हृदय में राग-द्वेष की अल्पता होती है वह न किसी से इतना राग करता है कि उसके मोहबंधन में ही बँध जाय और न किसी के प्रति इतना द्वेष ही कि उसके प्रति घृणा ही हृदय में घर कर जाय। वह हर्ष-शोक, भय-दुख, पीड़ा-कष्ट, लाभ-हानि आदि द्वन्दों में न हाय-हाय करता है और न सुख में फूलकर कुप्पा हो जाता है। उसकी मान्यता होती है-हानि-लाभ, जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ। यह भावना उसके समत्व का मूलाधार होती है। समताभावी यद्यपि अपने दुःखों को समत्व भाव से सहन कर उनकी पीड़ा व व्याकुलता से अप्रभावी रहता है, लेकिन यह समझना भ्रान्ति ही होगी कि वह परदुखकातर नहीं होता,

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68