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है। एक के अभाव में दूसरी पंगु के समान हो जाती है।
प्रवृत्ति, जहाँ अध्यात्म के क्षेत्र में प्रगति की दिशा-निर्देशक बनती है, वहीं व्यावहारिक जीवन को भी उन्नत करती है ।
जैन शास्त्रों में सम्यग्ज्ञान - दर्शन - चारित्र को रत्न-त्रय की संज्ञा से अभिहित किया गया है । रत्न स्वयं प्रकाशित होता है, उसे अन्य प्रकाश की अपेक्षा नहीं होती । वह स्वयं प्रकाशित होकर व्यक्ति के जीवन को भी प्रकाश से भर देता है, उसके जीवन व्यवहार में चमक आ जाती है ।
गोस्वामी तुलसीदास का एक दोहा हैराम नाम मणि दीप-धर,
जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरो,
जो चाहसि उजियार ॥ जैन दर्शन में यह रत्नत्रय - राम नाम रूप मणि है जो जीवन के बाहरी एवं आन्तरिक दोनों क्षेत्रों में ही प्रकाश देती है।
मणि अथवा रत्न के समान सम्यग्ज्ञानादि भी