Book Title: Jain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Nagpur Vidyapith

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Page 15
________________ जपला होता है। निरालि नामक उपस में बीहरी भूमिका लामी इला, सुरा, रस, और गन्ध इन दस वेदियो के नाम निकले समानी बादि वाचायों ने भी इन में से कतिपय देदियो का नामोल्लेख किया गया में या यक्षिणियो, मासन देवी-देवताबो ताला मोकी भी माननीय हो गई। इतना ही नही, धारिणी, चामुन्य पदार्गा, कर्णपिकास पपावती आदि जैसी वैदिक-बोड परम्पराबोमे मान्य देवी-देवताबा भीमाना पीन परम्परा बच नहीं सकी। नाकामवामिती मावि सीनियों की भी सिद्धि की जाने कानी। प्रतिष्ठा, विधि-विधान बादि सापो के प्रतिलिट निर्वाण कलिलाप, रहस्यकल्पगुम, सूरिमन्त्रकल्प बापि शताकिगोटेभी रचे गये। स्तोत्रो की भी एक लम्बी परम्परा इसी कान-माल परमाण अनुस्यूत है। ८. समूची मान्त्रिक परम्परा के समीवन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भिक्षु को मूलतः मत्रादिक तत्वों से बिलकुल दूर रहने की व्यवस्था भी। पर उत्तरकाल में प्रभावना आदि की दृष्टि से बनेतर परम्पराबों का अनुकरण किया गया। इस अनुकरण की एक विशेषता दृष्टम्य है कि बन मन्य परम्परा कमी कनक बाचरण को प्रथम नहीं दिया। लेकिकता को ध्यान में वेसप भी वह विश्व अध्यात्मिकता से दूर नही हदी। इसलिए वह विकृत और पवभ्रष्ट भी नहीं हो सकी। ९. वहाँ तक योग का प्रश्न है, हम यह कह सकते है किन योगी समाप्त होता है वैदिक और बौद्ध योग वहां प्रारम्भ होता है । हलोबाकी परम्परा से जैन योग का कोई मेल नहीं खाता, फिर भी लोकिक बास्था को ध्यान में रखकर उत्तरकालीन आचार्यों ने उसके कुछ रूपों की बध्यात्मिकता के साथ सम्बड कर दिया। जैन योग के क्षेत्र में यह विकास बाबा-नवमासवादी प्रारम्भ हो जाता है और बारहवीं शताब्दी तक पह परिवर्तन बाधिक क्षित होने लगता है। बाचार्य सोमदेव, हेमचन्द्र, रामचन्द्र बादि विद्वानों में बैन योगका वैदिक बार बार योग की बोर सीप दिया। धर्मध्याल बन्तत बापाल बाला, अपाय, विपाक बोर संस्थान विषय के स्थान पर पिंप, 'ar बार मातीत ध्यानों की परिकल्पना कर दी गई। पाबिकनी, बाग्नेवी की बार माली मारपत्रों देवान, बांदपारित-बार मामलाकार लिया। प्रामग्राम, काम्यान और परकायापारमा जाने वालों को साक देव ने हर अपना बिना सोबत व प्रसारमा किमान की शादेबको। सिविकार 4.MagamMMIT

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