________________
५. भट्टारक सम्प्रदाय
उक्त संघों की आचार-विचार परम्परा की समीक्षा करने पर यह स्पष्ट बाभास होता है कि जनसंघ में समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन होता रहा है। यह संघ मूलतः निष्परिग्रही और बनवासी था, पर लगभग पोथी-पांचवीं शताब्दी में कुछ साधु चैत्यों में भी आवास करने लगे। यह प्रवृत्ति श्वेताम्बर और दिगम्बर, दोनों परम्परागों में लगभग एक साथ पनपी। इस तरह वहां साषु सम्प्रदाय दो भागों में विभक्त हो गया-वनवासी और बत्यवासी । पर ये दोनों शब्द श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अधिक प्रचलित हुए । दिगम्बर सम्प्रदाय में उनका स्थान क्रमशः मलसंघ और द्राविड संघ ने ले लिया। बाद में तो मूलसंधी भी चैत्यवासी बनते दिखाई देने लगे। आचार्य गुणभद्र (नवी शताब्दी) के समय साधुओं की प्रवृत्ति नगरवास की और अधिक झुकने लगी थी । इसका उन्होंने तीव्र विरोध भी किया ।
मयध्यग तक आते-आते जैन धर्म की आचार व्यवस्था में अनपेक्षित परिवर्तन आ गया।साधु समाज में परिग्रह और उपभोग के साधनों की ओर खिंचाव अधिक दिखाई देने लगा । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तो यह प्रवृत्ति बहुत पहले से ही प्रारम्भ हो गई थी, पर दिगम्बर सम्प्रदाय भी अब वस्त्र की ओर आकर्षित होने लगा। इसका प्रारम्भ वसन्तकीर्ति (१३ वीं शताब्दी) द्वारा मण्डपदुर्ग (मांडलगढ़, राजस्थान) में किया गया ।' भट्टारक प्रथा भी लगभग यहीं से प्रारम्भ हो गई । यहां यह उल्लेखनीय है कि वे दिगम्बर मट्टारक नग्नमुद्रा को पूज्य मानते थे और यथावसर उसे धारण भी करते थे। स्नान को भी वे वजित नहीं मानते थे । पिच्छी के प्रकार और उपयोग में भी अन्तर आया। धीरे-धीरे ये साधु-मठाधीश होने लगे और अपनी पीठ स्थापित करने लगे। उस पीठ की प्रचुर सम्पदा के भी वे उत्तराधिकारी होने लगे । इसके बावजूद उनमें निर्वस्त्र रहने अथवा जीवन के अन्तिम बमय में नग्न मुद्रा धारण करने की प्रथा थी। प्रसिद्ध विद्वान भट्टारक कुमुदचन्द्र पालकीपर बैठते थे, छत्र लगाते और नग्न रहते थे।
लगभग बारहवीं शती तक आते-आते भट्टारक समुदाय का आचार मूलाचार से बहुत भिन्न हो गया । आशापर ने उनके आचार को म्लेच्छों के
१. वात्मानुशासन, १९७. २. भट्टारक सम्प्रदाय, विद्याधर जोहरापुरकर, आचार्य भिक्षुस्मृति ग्रन्थ, द्वितीय
सण्ड, पृ. ३७, ३. जैन निवन्ध रलावली, पृ. ४०५.