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मघवागणी, माणकगणी, डालगणी, और कालूगणी । इसी शृङखला में तुलसीजी नवम आचार्य है।
तेरापन्थ की संघ-व्यवस्था विशेष प्रशंसनीय है । उदाहरणतः १) साधू के भोजन, वस्त्र, पुस्तक आदि जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति का
सामुदायिक उत्तरदायित्व संघ पर है। २) प्रतिवर्ष साधु-साध्वियां आचार्य के सानिध्य में एकत्रित होकर
अपने-अपने कार्यों का विवरण प्रस्तुत करते है और आगामी वर्ष का कार्यक्रम तैयार करते है । इसे "मर्यादा-महोत्सव" कहा जाता है। ३) संघ मे दीक्षित करने का अधिकार मात्र आचार्य को है, अन्य किसी को नहीं।
इस व्यवस्था से एक ओर जहां सामुदायिक विकास होता है वहां वैयक्तिक विकास की भी संभावनायें अधिक बन जानी है । विकास में बाधक होती है रूढ़ियां जो तेरापन्य में यथासमय मग्न होती हुई दिखाई देती है। आचारविचार की दिशा में भी यह पन्थ आगे है । इस पन्य पर मूल रूप से आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों का प्रभाव पढ़ा है।
इस प्रकार महावीर के निर्वाण के बाद जनसघ और सम्प्रदाय अनेक शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त हो गया । पर उनका आचार-विचार जैनधर्म के मूल रूप से बहुत दूर नही रहा । इसलिए उनमे वह ह्रास नही आया जो बौवधर्म में मा गया था। जनसंघ की यह विशेषता जनेतर संघों की दृष्टि से निःसन्देह महत्वपूर्ण है।