Book Title: Jain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Nagpur Vidyapith

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Page 411
________________ ३८७ दी। यह वैदिक संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव है। जैन संस्कृति में समय के अनुसार यह परिवर्तन लाकर उसे सुस्थिर करने में जिनसेन का महत्वपूर्ण योगदान है। लगभग एक शताब्दी बाद आचार्य सोमदेव ने इस परिवर्तित मान्यता को झकझोरने का प्रयत्न किया पर वे सफल नहीं हो सके। अतः उन्होंने गृहस्थ धर्मों को दो भागों में विभाजित किया- लौकिक धर्म और पारलौकिक धर्म। लौकिक धर्म ने वेद और स्मृति को प्रमाण मान लिये जाने की व्यवस्था की और पारलौकिक धर्म ने आगमों को।' परन्तु यह विभाजन तथा मान्यता आगे नहीं बढ़ सकी और अन्य आचार्यों का समर्थन उसे नहीं मिल सका। इस प्रकार जैनधर्म में समाज व्यवस्था कर्मणा रहते हुए भी जन्मना की ओर झुकने लगी । फिर भी यह अवश्य ध्यान में रखा गया कि लौकिक धर्म के माध्यम से मिथ्यात्व न पनपने लगे। इसलिए मोमदेव ने यह स्पष्ट कर दिया कि जिस विधि से सम्यक्त्व की हानि न हो तथा व्रत में दूषण न लगे ऐसी प्रत्येक लौकिक विधि जैनधर्म में सम्मत हो सकती है। आश्रम व्यवस्था : जहाँ तक आश्रम व्यवस्था का प्रश्न है, वह तो जीवन के विकासक्रम का दिग्दर्शक है । चारित्र उसकी पृष्ठभूमि है । इस दृष्टिसे जैन संस्कृति में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास (भिक्षुक) आश्रमों के कर्तव्यों का उल्लेख मिलता है। इन कर्तव्यों में वैदिक संस्कृति से कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं। फिर भी यह दृष्टव्य है कि उन्हें जैन संस्कृति की परिधि में रखा गया है। चतुर्णामाश्रमाणां च शुद्धिः स्यादर्हते मते । चतुराश्रम्यमन्येषामविचारितसुन्दरम् ।। ब्रह्मचारी गइस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु बनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः ॥' १. वो हि धर्मो गृहस्थाना लौकिक: पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेवाबः परः स्यादागमाषः ॥ -यशस्तिलकचम्मू, उत्तरार्ष, पृ. २७३ २. सर्व एव हि नानां प्रमाणं लोकिको विषिः । ___ यत्र सम्यकत्व हानिनं या न त दूषणम् ॥बही. पृ. ३७३ ३. माविपुराण, ३९. १५१-१५२; सागार धर्मामृत, ७.२०.

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