Book Title: Jain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Nagpur Vidyapith

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Page 432
________________ ४०८ बौर परिग्रह इन पांचो पापों को छोड़ दे। मद्य, मांस, मधु तवा पंचोवम्बर फलों (ऊमर, कठूमर, पिलखन, बड़, और पीपल) के भक्षण का त्याग कर दे । जुलाखेलना, वेश्यागमन, शिकार, परस्त्रीगमन आदि जैसे दुष्कृत्यों से वह दूर रहे। सही गृहस्य वही हो सकता है जो न्याय पूर्वक धनार्जन करने वाला हो, गुणों, गुरुजनों, तथा गुणियों को पूजने वाला हो, हित-मित-प्रिय भाषी हो, धर्म अर्थ काम स्म त्रिवर्ग को परस्पर विरोध रहित सेवन करने वाला हो, शास्त्रानुकूल आहारबिहारी हो, सदाचारियों की संगति करने वाला हो, विवेकी, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय, धर्मविधि का श्रोता, करुणाशील और पापभीरु हो। न्यायोपात्तधनो यजन्गुणगुरुन् सद्गीस्त्रिवर्ग भजन नन्योन्यानुगुणं तदहंगृहिणी स्थानालयो होमयः । युक्ताहारविहार आर्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञो वशी शृण्वन् धर्मविधि दयालु धर्मी सागरधर्म चहेत् ॥' सामाजिक शान्ति के लिए जैनधर्म ने कुछ और सूत्र दिये हैं जिनका निर्विवाद रूप से मूल्यांकन किया जा सकता है। प्राणियों के. रस्सी आदि से नहीं बाधना, उन्हें लकड़ी आदि से नहीं मारना, उनका अंगच्छेद नहीं करना, उनकी शक्ति से अधिक उन पर भार नहीं लादना, उन्हें ठीक समय पर पर्याप्त भोजन पानी देना, विपरीत उपदेश अथवा सलाह नहीं देना किसी की गुप्त बात को प्रमट न करना, कूट लेख न लिखना, रखी हुई धरोहर को उसी रूप में देना अथवा अस्वीकार न करना, चोर को चोरी के लिए प्रेरणा न देना अथवा उसका उपाय न बताना, चुराई वस्तु को न खरीदना, राज्य की आज्ञा अथवा नियम के विरुद्ध न चलना, देने के बांट आदि कम और लेने के बांट आदि अधिक रखना, कीमती वस्तु में कम कीमत की वस्तु का मिश्रण कर उसे मूल कीमत में बेचना, वेश्याओं और परस्त्रियों से बुरे सम्बन्ध न रखना, अनंगक्रीडा न करना, आवास क्षेत्र, सोना, चांदी,धन, धान्य, भृत्य, वस्त्र, आदिको सीमित करना, अशिष्ट वचन न बोलना, अतिथियों का स्वागत करना, सत्पात्र में दान देना आदि नियम ऐसे ही हैं जिनसे समाज में व्याप्त अशान्ति को दूर किया जा सकता है।' भगवान महावीर के ये सिद्धान्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्बरचारित्र स्म तीन आधारशिलाभों पर टिके हुए हैं। तीनों के समन्वित रूप का परि १. सागार षर्मामृत, १. ११. २. तत्त्वार्यसूत्र, सप्तम बघ्याय.

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