Book Title: Jain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Nagpur Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 433
________________ पालन व पथार्थम समता की प्राप्ति में मूलभूत कारण है। यह तथ्य मिती कालखण्ड से जकड़ा हुमा नहीं है। यह तो अपोधित, असीमित, और सानामिक तथ्य है जो जीवन के प्रत्येक अंग को स्वस्थ मोर समृद्ध कर देता है। महावीर के समूचे उपदेशों को यदि हम एक शब्द में कहना चाहें तो उसके लिए अहिंसा शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। जीवन के हर क्षेत्र की समस्या का समाधान अहिंसा के आचरण में सन्निहित है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावों का अनुवर्तन, समता और अपरिग्रह का अनुचिन्तन, नप भार बनेकान्त का अनुग्रहण तवा संगम और सच्चारित्र का अनुसाधन बहिंसा के प्रमुख रूप हैं। उसकी पुनीत पृष्ठभूमि अहिंसा से अनुरञ्जित है। अहिंसा समत्व पर प्रतिष्ठित है। समत्व की प्राप्ति सम्यग्दर्शन और सम्पग्शान से युक्त सम्यक्चारित्र पर अवलम्बित है । इसी चारित्र को 'धर्म' कहा गया है। यही 'धर्म' सम है। यह समत्व राग-द्वेषादिक विकारों के विनष्ट होने पर उत्पन्न होने वाला विशुद्ध आत्मा का परिणाम है। धर्म से परिणत आत्मा को ही 'धर्म' कहा गया है। धर्म वस्तुत: आत्मा का स्पन्दन है जिसमें कारुण्य, सहानुभूति, 4 सहिष्णुता, परोपकारवृत्ति आदि जैसे गुण विद्यमान रहते है। वह किसी जाति अथवा सम्प्रदाय से बंधा नहीं। उसका स्वरूप तो सार्वजनिक, सार्वभौमिक और लोकमांगलिक है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व का अभ्युत्थान ऐसे ही धर्म की परिसीमा से संभव है। संयम धर्म का एक अभिन्न अंग है। संयमी व्यक्ति सदैव इस बात का प्रयत्न करता है कि दूसरे के प्रति वह ऐसा व्यवहार करे जो स्वयं को अनुकूल लगता हो। तदर्थ उसे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावना का पोषक होना चाहिए। सभी सुखी और निरोग रहें, किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो, एसा प्रयत्न करे। सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सन्तु सर्वे निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखमाप्षात् । माकार्षीत् कोऽपि पापानि मा च भूत कोऽपि दुःखितः मुख्यता जमदप्येषा मतिमंत्री निगद्यते ॥' - १. प्रवचनसार, १. ६-७. २. यमस्तिलकाचम्मू, उत्तरार्ष

Loading...

Page Navigation
1 ... 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475