Book Title: Jain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Nagpur Vidyapith

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Page 418
________________ शिक्षा: शिक्षा का मूल उद्देश्य मानव में सुप्त अन्तनिहित आत्म-शक्तियों का विकास करना रहा है। सम्यक् आचार-विचार का संयोजन, मानसिक पवित्रता और दृढ़ता, सांसारिक पदार्थों की क्षणभंगुरता का बोध, अनासक्त भाव, स्वाध्याय और चिन्तन, कर्तव्यबोध और सहिष्णुता आदि सद्गुणों और आत्मगुणों का उन्नयन उसकी साधना तथा मानवता की प्राण-प्रतिष्ठा भी इसी की परिकल्पना है। साधु, उपाध्याय, आचार्य, अहंन्त और सिद्ध इन पांच सोपानसिद्धियों की क्रमशः उपलब्धि जैन शिक्षा पद्धति की फलश्रुति है। आवश्यक चूणि (पृ. १५७-८) में शिक्षा के दो प्रकारों का उल्लेख है-ग्रहणशिक्षा और आसेवन शिक्षा । शिक्षा शब्द का अर्थ शास्त्राध्ययन करना भी किया गया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय को शिक्षासाधना का कल्याण पथ माना गया है। साधन यदि विशुद्ध होते हैं तो साध्य स्वतः विशुद्ध बन जाता है । शिक्षा के क्षेत्र में साधनों का विशुद्ध होना अत्यावश्यक है। यहीं से जीवन की पगडण्डियां प्रारम्भ होती हैं और आगे चलकर वे महामार्ग के रूप में परिणत हो जाती हैं। अतः शिक्षा का क्षेत्र अध्यात्मिकता से अनुप्राणित होना नितान्त अपेक्षित है। उसका मूल सम्बन्ध सम्यक्चारित्र से जुड़ा हुआ है जिसकी परिभाषा "असुहाओ विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाणचरितं” की गई है। अर्थात् अशुभ कर्मों से निवृत्ति और शुभ कर्मों में प्रवृत्ति चारित्र का मुख्य अंग है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच व्रतों का पालन सम्यक् चारित्र की प्राप्ति का प्रमुख साधन है। मंत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओं का चिन्तन, क्षमा, मार्दवादि दश धों का अनुकरण तथा मद्य-मांसादि सप्त दुर्व्यसनों का परित्याग इन साधनों की पुष्टि के उपकारक हैं। इनसे भाव विशुद्ध होते जाते हैं और अन्ततः निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है। जिनसेन ने शिक्षा को यशस्करी, श्रेयस्करी, कामदायिनी, चिन्ता-मणि, कल्याणकारिणी आदि रूप से वर्णित किया है।' शिक्षा के ये उद्देश जैन साहित्य के हर पृष्ठ पर अंकित है। आद्य तीर्षकर ऋषभदेव ने अपने पुत्र-पुत्रियों को जो शिक्षा दी उससे शिक्षा के स्वरूप और उसके उद्देश्यों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है१. आत्मोत्थान के लिए प्रयत्नशीलता - - १. आदिपुराण, १६ ९९-१०१ २. आदिपुराण. १६-९७-१०२; अत्रिपुराण में प्रतिपादित भारतीय संस्कृति, पृ. २५१, भगवती आराधना, वि. ११९४

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