Book Title: Jain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Nagpur Vidyapith

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Page 420
________________ करना', संवेग की उत्पत्ति होना, काय, वेदना, चित्त और धर्म इन चार आनापान सति पट्टानों पर अनुचिन्तन करना, मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार ब्रह्मविहारों का पालना चालीस कर्मस्थानों पर ध्यान करना.' आदि कुछ ऐसे ही तत्व हैं जिनका अनुकरणकर बौद्ध साधक क्रोधादिविकारों को दूर करता है और परम शान्ति प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । ये सभी श्रमण शिक्षार्थी के गुण कहे जा सकते हैं। इसी प्रकार जैन धर्म में भी विनयादि गुणों को शिक्षार्थी के मूलभूत गुणों में सम्मिलित किया गया है। उत्तराध्ययन तो 'विनय सुयं' नामक अध्याय से ही प्रारम्भ होता है। भ. महावीर ने जिस साधना पद्धति को अंगीकार किया था उसका एक अंग तपोयोग हैं।' उसका एक प्रकार विनय है जिसके सात रूप वर्णित है। १. ज्ञानविनय, २. दर्शनविनय, ३. चारित्रविनय, ४. मनोविनय, ५. वचनविनय, ६. कायविनय, और ७. लोकोपचारविनय ।' विनय का समावेश आभ्यन्तर तप में किया गया है जिससे अहंकार की मुक्ति और परस्परोपग्रह की भावना का विकास होता है। वृहद्वत्ति में विनय के पांच रूप दिये गये है-१. लोकोपचारविनय, २. अर्थविनय, ३. कामविनय ४. धर्मविनय, बीर ५. मोक्षविनय ।" उत्तराध्ययन सूत्र में विनीत शिष्य के पन्द्रह गुणों का उल्लेख मिलता है १. नम्र व्यवहार करना २. चपलता-चञ्चलता से दूर रहना ३. ममायावी (निश्छल) होना ४. कुतूहल न करना ५. किसी का तिरस्कार न करना अथवा अल्पभाषी होना ६. क्रोध को पत्थर की लकीर के समान बांधकर नही रखना ७. मित्रता और कृतज्ञता रखना ८. ज्ञान प्राप्त करने पर अभिमान न करना १. अभिधम्मत्वसंगहो, ७.८ २. विसुरिमाग, ३.१०४ ३. बीपपातिमात्र, सूत्र २० ४. उत्तराध्ययन, ३०.३० ५. बृहद्वृत्ति, पत्र १६ ६. बाराधना, ११.१०-१३

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