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'चन्द्र गच्छ (११८२ ई.), नागेन्द्र गच्छ ( १०३१ ई.), निवृत्ति गन्छ ( १४१२ ई.), पिप्पालाचार्य गच्छ ( ११५१ ई.), महेन्द्रसूरि गच्छ (१३ वीं शती), आम्रदेवाचार्य गच्छ ( ११ वीं शती), प्रभाकर गच्छ ( १५१५ ई.), कड़ीमति गच्छ ( १५०५ ई.), धर्मतोषगच्छ ( १४ वीं शती), भावदेवाचार्य गच्छ ( १३ वीं शती), बडाहड़ गच्छ ( १३ वीं शती), मल्लधारी गच्छ ( १३ वीं शती), विद्याधर गच्छ ( १४ वीं शती), विजयगच्छ (१६४२ ई.) मड़ाहड़ गच्छ ( १२३० ई.), नानवालगच्छ (११ वीं शती), बृहद् गच्छ (१०८६ ई.), ब्राह्मणगच्छ ( १२ वीं शती), काछोली गच्छ ( १४ वीं शती), उपकेश गच्छ ( १२०२ ई.), कोरण्टक गच्छ ( १०३१ ई.), सण्डेरक गच्छ (१२ वीं शती), हस्तिकुण्डी गच्छ ( १३९६ ई.) पल्लिवालगच्छ ( १४०५ ई.), नागपुरीय गच्छ ( १११७ ई.) हर्षपुरीयगच्छ ( ११०५ ई.) भतृपुरीयगच्छ (१३ वीं शती), थारापद्रीय गच्छ ( ११५१ ई.), आदि ।
इन गच्छों की स्थापना छोटे-मोटे अनेक कारणों से हुई । कुछ का सम्बन्ध स्थानों से है तो कुछ का कुल से गच्छ अधिकांश किसी न किसी आचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं । प्रत्येक गच्छ की साधुचर्या पृथक्-पृथक् रही है । इन गच्छों में आजकल खरतरगच्छ, तपागच्छ और आंचलिकगच्छ ही अस्तित्व में है । ये सभी गच्छ मन्दिर - मार्गी और मूर्तिपूजक रहे हैं ।
स्थानकवासी सम्प्रदाय :
मूर्तिपूजा के विरोध में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी कुछ सम्प्रदाय बड़े हुए जिनमें स्थानकवासी और तेरापन्थी प्रमुख हैं । स्थानकवासी सम्प्रदाय की उत्पत्ति चैत्यवासी सम्प्रदायके विरोध में हुई । १५ वीं शती में अहमदाबादवासी मुनि शीनश्री के शिष्य लोकाशाहने आगमिक ग्रन्थों के आधार पर यह प्रस्थापित किया कि मूर्तिपूजा और आचार-विचार जो आज की समाज में प्रचलित है, वह आगम विहित नहीं । फलतः उन्होंने १४५१ ई. में लोंकापंथ की स्थापना की । चैत्यवासियों के विलासपूर्ण जीवन के विरोध ने इसे लोकप्रिय बना दिया। मूर्तिपूजा का विरोध, प्रतिक्रमण, प्राचारव्यान और ब्रह्मचर्य पालन उनके मुख्य सिद्धान्त थे । इन सिद्धान्तों का आधार ३२ सूत्रों को बनाया ।
उत्तरकाल में सूरतवासी एक गृहस्थ लवजी ने लोकागच्छ की आचार परम्परा में कुछ सुधार कर ढूंढ़िया सम्प्रदाय भी स्थापना की । लोकागच्छ के सभी अनुयायी इस सम्प्रदाय के अनुयायी हो गये । इसके अनुसार अपना धार्मिक क्रियाकर्म मन्दिरों में न कर स्थानकों अथवा उपाश्रय में करते हैं ।