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इसलिए इस सम्प्रदाय को स्थानकवासी सम्प्रदाय कहा जाने लगा। इसे साधुमार्गी भी कहते हैं । यह सम्प्रदाय तीर्थयात्रा में भी विशेष श्रवा नहीं रखता इसके साधु श्वेतवस्त्र पहिनते और मुखपट्टी बांधते हैं। अठारहवीं शती में सत्यविजय पंयास ने साधुओं को श्वेतवस्त्र पहिनने का विषान किया, पर आज यह प्रचार में दिखाई नहीं देता। क्रियोदारकों में पांच आचार्यों के नाम प्रमुख है-जीवराज, लव, धर्मसिंह, धर्मदास, हर, और पन्ना । जीवराज, अमरसिंह, नानकराम, माषो, नाथूराम, मूघर, रघुनाथ, जयमल, रामचन्द, कुशल, कनीराम आदि अनेक प्रभावक आचार्य इत सम्प्रदाय में हुए हैं । तेरापन्ध सम्प्रदाय :
स्थानकवासी आचार-विचार की शिथिलता के विरोध में स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रघुनाथ के शिष्य आचार्य भिक्षु (भीखणजी) ने वि.सं. १८१७, चैत्रशुक्ला नवमी के दिन अपने पृथक् सम्प्रदाय की स्थापना का सूत्रपात किया। उनकी अन्तर्मुखी वृत्ति, अनासक्ति और प्रतिभा के लगभग तीन बहबाद तेरापन्थ की स्थापना कर दी। इस अवसर पर उनके साथ तेरह साषु थे और तेरह श्रावक । इसी संख्या पर इस पन्थ का नाम 'तेरापन्य' रत दिया गया। बाद में इसकी आध्यात्मिक अभिव्यक्ति हुई कि भगवन, यह तुम्हारा ही मार्ग है जिसपर हम चल रहे हैं । पांच महावत, पांच समिति और तीन गुप्ति इन तेरह नियमोंका जो पालन करे वह तेरापन्थी है। ___ स्थानकवासी सम्प्रदाय के समान तेरापन्थ भी बत्तीस भागमों को प्रामाणिक मानता है । तदनुसार प्रमुख अन्यतायें इस प्रकार हैं१) षष्ठ या षष्ठोत्तर गुणस्थानवर्ती सुपात्र संयमी को यथाविधि प्रदत्त
दान ही पुण्य का मार्ग है। २) जो आत्मशुद्धि पोषक दया है वह पारमार्षिक है और जिसमें साध्य__साधन शुद्ध नहीं है, वह मात्र लौकिक है । ३) मियादृष्टि के दान, शील, तप आदि अनवब अनुष्ठान मोग-प्राप्ति
के ही हेतु हैं और वे निर्जरा धर्म के अन्तर्गत है। ४) निष्काम कर्म की प्रतिष्ठा । ५) समता और सापेक्षता के आधार पर संघ की व्यवस्था ।
इस सम्प्रदाय में एक ही बाचार्य होता है और उसी का निर्णय अन्तिम रूप से मान्य होता है । इससे संघ फूट से बच जाता है । अभी तक तेरापन्न के बाठ बाचार्य हो चुके है-मि (भोषण), भारमल, रामचन्द्र, जीतमल,