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४) आनन्दसूरि गच्छ५) सागर गच्छ६) विमल गच्छ ७) संवेगी गच्छ
संस्थापक आनन्दसूरि संस्थापक सागरसूरि संस्थापक विमलसूरि संस्थापक विजयगणि
पाश्वनाषगच्छ :
वि. सं. १५१५ में तपागच्छ पृथक् होकर आचार्य पावचन्द ने इस गच्छ की स्थापना की । वे नियुक्ति, अल्प, चूणि, और छेद ग्रन्थों को प्रमाण कोटि में नहीं रखते थे। इसी प्रकार कृष्णषि का कृष्णपिंगच्छ भी तपागच्छ की ही शाखा के रूप में प्रसिद्ध था।
आञ्चलगच्छ:
उपाध्याय विजयहसिंसूरि (आर्यरक्षित सूरि) ने ११६६ ई. में मुखपट्टी के स्थान पर अंचल (वस्त्र का छोर) के उपयोग करने की घोषणा की। इसीलिए इसे अंचलगच्छ कहते हैं । पूर्णिमा एवं सार्ष पूणिमिया गच्छ :
आचार्य चन्दप्रभसूरि ने प्रचलित क्रियाकाण्ड का विरोधकर पौर्णमेयकगच्छ की स्थापना की । वे महानिशीथसूत्र को प्रमाण नहीं मानते थे । कुमारपाल के विरोध के कारण इस गच्छ का कोई विशेष विकास नहीं हो पाया। कालान्तर में ११७९ ई. में सुमतिसिंह ने इसका उद्धार किया इसलिए इसे सार्ध पौर्णमीयक गच्छ कहा जाने लगा। आगमिक गच्छ :
इस गच्छ के संस्थापक शीलगुण और देवभर पहले पौर्णमेयक थे। बाद में आचलिक हुए और फिर ११९३ में आगमिक हो गये। वे क्षेत्रपाल की पूजा को अनुचित बताते थे । सोलहवीं शती में इसी गच्छ की एक शाखा कटक नाम से प्रसिद्ध हुई इस शाखा के अनुयायी केवल श्रावक थे। अन्य गच्छ
इन गच्छों के अतिरिक्त पच्चीसों गच्छों के उल्लेख मिलते हैं जिनकी स्थापनायें प्राय: १०-११ वीं शताब्दी के बाद राजस्थान में हुई । इन गच्छों में कतिपय इस प्रकार है१. राजस्थात में जैन संस्कृति के विकास का ऐतिहासिक सर्वेक्षण-ॉ. कलाशचना जैन, एवं डॉ. मनोहरलाल दलाल, जैन संस्कृति और राजस्थान विशेषांक, जिनवाणी, वर्ष १२, बंक ४-७, १९०५. १.१२५-१६८,