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प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । पूर्वगत के ही उत्पाद आदि पूर्वोक्त चोदह भेद हैं । उन अंगों के आधार पर रचित ग्रन्थ अंगबाहय कहलाते हैं जिनकी संख्या चौदह है- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक महापुण्डरीक और निषिद्धिका । दिगम्बर परम्परा इन अंगप्रविष्ट और अंगबाहच ग्रन्थों को विलुप्त हुआ मानती है । उसके अनुसार भ. महावीर के परिनिर्वाण के १६२ वर्ष पश्चात् अंगग्रन्थ क्रमशः विच्छिन्न होने लगे । मात्र दृष्टिवाद के अन्तर्गत आये द्वितीय पूर्व आग्रायणी के कुछ अधिकारों का ज्ञान आचार्य घरसेन के पास शेष था जिसे उन्होंने आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को दिया । उसी के आधार पर उन्होंने पट्खण्डागम जैसे विशालकाय ग्रन्थ का निर्माण किया । श्वेताम्बर परम्परा में ये अंगप्रविष्ट और अंगबाहघ ग्रन्थ अभी भी उपलब्ध हैं । अंगबाहय ग्रन्थों के सामायिक आदि प्रथम छह ग्रन्थों का अन्तर्भाद कल्प, व्यवहार ओर निशीथ सूत्रों में हो गया ।
अनुयोग साहित्य :
अंगप्रविष्ट और अंगबाहय ग्रन्थों के आधार पर जो ग्रन्थ लिखे गये उन्हें चार विभागों में विभाजित किया गया है- प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग । प्रथमानुयोग में ऐसे ग्रन्थों का समावेश होता है जिनमें पुराणों, चरितों और आख्यायिकाओं के माध्यम से सैद्धान्तिक तत्त्व प्रस्तुत किये जाते हैं । करणानुयोग में ज्योतिष और गणित के साथ ही लोकों, सागरों, द्वीपों, पर्वतों, और नदियों आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है । सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थ इस विभाग के अन्तर्गत आते हैं । जिन ग्रन्थों में जीव, कर्म, नय, स्याद्वाद आदि दार्शनिक सिद्धान्तों पर विचार किया गया है वे द्रव्यानुयोग की सीमा में आते हैं । ऐसे ग्रन्थों में षट्खण्डागम, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थों का समावेश होता है । चरणानुयोग में मुनियों और गृहस्थों के नियमोपनियमों का विधान रहता है । कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार, नियमसार, रयणसार, वट्टकेर का मूलाचार, शिवार्य की भगवती आराधना आदि ग्रन्थ इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं ।
वाचनाएं :
प्राचीन काल में श्रुति परम्परा ही एक ऐसा माध्यम था जो हर सम्प्रदाय के आगमों को सुरक्षित रखा करता था । समय और परिस्थितियों के अनुसार चिन्तन की विभिन्न घाराऍ उसमें संयोजित होती जाती थीं । संगीतियों अथवा