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शायद यह प्रथम संघ था, जिसने श्वेताम्बर और दिगम्बर, दोनों संघों की मान्यताओं को एकाकार कर दोनों को मिलाने का प्रयत्न किया था। इस संघ के आचार के अनुसार साधु नग्न रहते मयूरपिच्छ धारण करते पाणितलभोजी होते और नग्न मूर्ति की पूजन करते थे। पर विचार की दृष्टि से वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के समीप थे । तदनुसार वे स्त्रीमुक्ति, केवलीकवलाहार और सवस्त्रमुक्ति मानते थे। उनमें कल्पसूत्र, आवश्यक, छंदसूत्र, नियुक्ति दशवकालिक बादि श्वेताम्बरीय ग्रन्थों का भी अध्ययन होता था। यापनीय संघ को गोप्पसंघ भी कहा गया है।
आचार-विचार का यह संयोग यापनीय संघ की लोकप्रियता का कारण बना । इसलिए इसे राज्यसंरक्षण भी पर्याप्त मिला । कदम्ब, चालुक्य, गंग, राष्ट्रकूट, र? आदि वंशों के राजाओं ने यापनीय संघ को प्रभूत दानादि देकर उसका विकास किया था। इस संघ का अस्तित्व लगभग १५ वीं शताब्दी तक रहा है, यह शिलालेखों से प्रमाणित होता है। शिलालेख विशेषतः कर्नाटक प्रदेश में मिलते हैं । यही इसका प्रधान केन्द्र रहा होगा। वेलगांव, वीजापुर, धारवाड, कोल्हापुर आदि स्थानों पर भी यापनीय संघ का प्रभाव देखा जाता है। - यापनीय संघ भी कालान्तर में अनेक शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त हो गया। उसकी सर्वप्रथम शाखा 'नन्दिगण' नाम से प्रसिद्ध है। कुछ अन्य गणों का भी उल्लेख शिलालेखों में मिलता हैं- जैसे-कनकोपलसम्भूतवृक्षमूल गण, श्रीमूलगण, पुनागवृक्षमुलगण, कौमुदीगण, मड़वगण, कारेयगण, वन्दियूरगण, कण्ड रगण, बलहारिगण बादि । ये नाम प्रायः वृक्षों के नामों पर रखे गये हैं। सम्भव है, इस संघ ने उन वृक्षों को किसी कारणवश महत्व दिया हो। लगता है, बाद में यापनीय संघ मूल संघ से सम्बद्ध हो गया होगा । लगभग ११ वीं शताब्दी तक नन्दिसंघ का उल्लेख द्रविड़ संघ के अन्तर्गत होता रहा और १२ वीं शताब्दी से वह मूलसंध के अन्तर्भूत होता हुआ दिखता है। - यापनीय संघ के बाचार्य साहित्य सर्जना में भी अग्रणी थे। पाल्यकीर्ति
का शकटायन व्याकरण, अपराजित की मूलाराषना पर विजयोदया टीका बोर शिवार्य की भगवती बाराधना का विशेष उल्लेख यहां किया जा सकता है। उमास्वाति, सिरसेन दिवाकर, विमलसूरि, स्वयंभू आदि आचार्यों को भी यापनीय संघ से संबद्ध माना गया है।
१. पदनसमुचव, बनावटीका, पृ.७६. २. बमोमवृत्ति १.२.२०१-४. ३.चन सम्प्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश-डॉ.ए. एन, उपाध्ये, बनेकान्त, वर्ष २८, किरण पु. १, २४-२५३.