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कोल्हापुर जिनकांची (मद्रास) वेनुगोण्ड (आन्ध्र) और कारंजा (विदर्भ) में उपलब्ध होती हैं।
मूलसंघ के आचार्यों ने इतर संघों को जैनाभास कहा है। ऐसे संघों में उन्होंने द्राविड, काष्ठा, यापनीय माथुर और भिल्लक संघों की गणना की है। जैनाभास बताने का मूल कारण यह था कि उनमें शिथिलाचार की प्रवृत्ति अधिक आ चुकी थी। वे मन्दिर आदि का निर्माण कराते थे। और तनिमित्त दान स्वीकार करते थे । पर यह ठीक नहीं। क्योंकि आशाधर जैसे विद्वान इसी तथाकथित जैनाभास संघों में से थे, जिन्होंने शिथिलाचार की कठोर निन्दा की है । दर्शनपाहुड की टीका में श्वेताम्बर सम्प्रदाय को भी जैनाभासी संघों में परिगणित किया है ।
२. बाविर संघ:
द्राविड़ संघ का सम्बन्ध स्पष्टतः तमिल प्रदेश से रहा है । ई. पूर्व चतुर्थ शताब्दी में वहां जैनधर्म पहुंच चुका था। सिंहल द्वीप में जो जैनधर्म पहुंचा वह तमिल प्रदेश होकर ही गया। आचार्य देवसेन ने इस संघ की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि देवनन्दि के शिष्य वचनन्दिने वि. सं. ५२६ में मयुरा में इस संघ की स्थापना की थी। इस संघ की दृष्टि में वाणिज्य व्यवसाय से जीविकार्जन करना और शीतल जल से स्नानादि करना विहित माना गया है। उसके अनुसार बीजों में जीव नहीं तथा मुनियों को खड़े-खड़े भोजन करने का कोई विधान नहीं। तमिल प्रदेश में शैव सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा बहुत अधिक थी। सप्तम शताब्दी में उनके साथ जैनों के अनेक संघर्ष भी हुए। इस संघ को अधिकाधिक लोकप्रिय बनाने की दृष्टि से इसके यक्ष-यक्षिणियों की पूजा प्रतिष्ठा बादि को भी स्वीकार कर लिया गया । पद्मावती की मान्यता यहीं से प्रारम्भ हुई प्रतीत होती है । कृर्चक संघ (जटाधारी) भी इसी संघ में था।
होयसल नरेशों के लेखों से पता चलता है कि वे इस संघ के संरक्षक रहे हैं। उन्ही के लेख इस संघ के विषय की सामग्री से भरे हुए हैं। द्राविड़ संघ के साथ ही इस संघ में कोण्डकुन्दान्वय, पुस्तकगच्छ, मूलितलगच्छ और अरुंगलान्वय आदि को भी जोड़ दिया गया है । संभव है, अपने संघ को अधिकाधिक प्रभावशाली बनाने की दृष्टि से यह कदम उठाया गया हो। मैसूर प्रदेश इसके प्रचार-प्रसार का केन्द्र रहा है। . १. वनबार, २४-२५.