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'गुप्त' बताया तथा खण्डकेसर वृक्षों से आनेवालों को 'सिंह' और 'चन्द्र' कहकर पुकारा । परवर्ती अभिलेखों में मूलसंघ के प्रणेता कुन्दकुन्दाचार्य माने गये
तथा पट्टावलियों में माघनन्दी को प्रथम स्थान दिया गया है। इसी सन्दर्भ में इन्द्रनन्दि ने कुछ मतभेदों का भी उल्लेख हुआ है जिससे पता चलता है कि इन्द्रनन्दि को भी संघभेद का स्पष्ट ज्ञान नहीं था। पर यह निश्चित है कि उस समय विशेषतः नन्दि, सेन, देव देशी और सिंह गण ही प्रचलित थे। बाद में सूरस्थगण, बलात्कार गण, काणूरगण आदि गणों का भी उत्पत्ति हुई। मन्विसंध:
मूलसंघमें नन्दि संघ प्राचीनतम संघ प्रतीत होता है । इस संघ की एक 'प्राकृत पट्टावली भी मिली है । ये कठोर तपस्वी हुआ करते थे । यापनीय और द्राविड संघ में भी नन्दिसंघ मिलता है । लगभग १४-१५ वीं शताब्दी में नन्दिसंघ और मूलसंघ एकार्थ वाची-से हो गये । नन्दिसंघ का नाम "नन्दि" नामान्तधारी मुनियों से हुआ जान पड़ता है । सेनसंध:
सेनसंघ का नाम भी सेनान्त आचार्यों से हुआ होगा। जिनसेन एक संघ के प्रधान नायक कहे जा सकते है । उनके पूर्व, संभव है, उसे 'पञ्चस्तूपान्वय' कहा जाता हो। जिनसेन ने अपने गुरु वीरसेन को इसी अन्वय से सम्बद्ध लिखा है। इस अन्वय का उल्लेख पहाड़पर (बंगाल) के पांचवीं शताब्दी के शिलालेखों में तथा हरिवंश कथाकोष में भी मिलता है । 'सेनगण' नाम भी उत्तर कालीन ही प्रतीत होता है । यह गण दक्षिण भारत के भट्टारकों में अधिक प्रचलित रहा है।
मूलसंघ के अन्तर्गत जो शाखायें-प्रशाखायें उपलब्ध होती हैं, उन्हें हम निम्नप्रकार से विभाजित कर सकते हैं१. मन्वय-कोण्डकुन्दान्वय, श्रोपुरान्वय, कित्तुरान्वय, चन्द्रकवाटान्वय,
चित्रकूटान्वय आदि । २. बलि-इनसोगे या पनसोगे, इंगुलेश्वर एवं वाणद बलि भादि । १. श्रुतावतार, ९६. २. न पिलालेख संग्रह प्रथम खण्ड, यसंख्यक ५. 3, Indian Antiquary, XX, P, 341 ४. नीतिसार, ६-८. ५. पीपरी गुलाबचना-दिगम्बर जैन संघ के अतीत की एक झांकी, भाचार्य निया स्मृतिवन्ध, वितीय सन्छ, पृ. २९५.