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उत्तर काल में इस प्रकार के अर्थ करने की प्रवृत्ति और भी बढ़ती गई । हरिभद्रसूरि ने "दशवकालिक मूत्र" में आये शब्द नग्न का अर्थ उपचरितनन्न और निरुपचरितनग्न किया है । कुचेलवान् साधु को उपचरितनग्न और जिनकल्पी साधु की निरुपचरित नग्न करा गया है। गद में अचेल का अर्थ अल्पमूल्यचेल भी किया गया। सिद्धसेनगणि ने भी दशकल्पों में आये आचेतक्य कल्प का अर्थ यही किया है । धीरे-धीरे साधु वस्तिों में रहने लगे। कटिवस्त्र के स्थानपर चोलपट्ट का प्रयोग होने लगा और उपारणों में वृद्धि हो गई। लगभग आठवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह विकास हो चुका था ।
उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि शिथिलाचार की पृष्ठभूमि में संघ भेद के बीज जम्बस्वामी के बाद से ही प्रारम्भ हो गये थे जो भद्रबाह के काल में दुभिक्ष की समाप्ति पर कुछ अधिक उभरकर सामने आये "परिशिष्टपर्वन्" (९-५५-७६) तथा "तित्थोगाली पइन्नय" (गा. ७३०-३३) के अनुसार भी पाटालिपुत्र में हुई प्रथम वाचना काल में संघभेद प्रारम्भ हो गया था। यह वाचना भद्रबाहु की अनुपस्थिति में हुई थी। इसी के फलस्वरूप दोनों पर
रामों की मुर्वावलियों में भी अन्तर आ गया। यह स्वाभाविक भी था । उत्तर काल में इस अन्तर ने आचार-विचार क्षेत्र को भी प्रभावित किया और देवघिगणि क्षमाश्रमण के काल तक दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परायें सदैव के के लिए एक दूसरे से पृथक् हो गई। केशी गौतम जैसे संवाद जोड़े गये और जिनकल्प के उच्छेद की बात प्रस्थापित की गई ।
१. दिगम्बर संघ और सम्प्रदाय दिगम्बर परम्परा संघ भेद के बाद अनेक शाखा प्रशाखाओं में विभक्त हो गई । वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष तक चली आयी लोहाचार्य तक की परम्परा में गण, कुल, संघ आदि की स्थापना नहीं हुई थी। उसके बाद अंग पूर्व के एकदेश के ज्ञाता चार आरातीय मुनि हुए । उनमें आचार्य शिवगुप्त अथवा बईबली से नवीन संघ और गणों की उत्पत्ति हुई । महावीर के निर्वाण के लगभग इन ७०० वर्षों में आचार-विचार में पर्याप्त परिवर्तन हो चुका था। समाज का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचा बदल चुका पा। शिथिलाचार की प्रवृत्ति बढ़ने लगी थी । इसी कारण नये-नये संघ और सम्प्रदाय बड़े हो गये।
१. वशवकालिकसूत्र, गापा-६४ चुणि. २. तत्वार्षसूत्र, १९, व्याल्या; शीलांकाचार्य ने भी आचारांग सूत्र १८० की टीका में बवेल
का यही वर्ष दिया है।