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१३००) आदि में भी पार्श्वस्य साधुओं का चरित्र-चित्रण इसी प्रकार किया गया है । इसका मूल कारण है कि पार्श्व परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत को अपरिग्रह व्रत में सम्मिलित कर दिया गया था ।
'पञ्चाशक विवरण' में कहा गया है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के अनुयायी साधु स्वभावतः कठिन और वक्रजड़ होते थे । इसलिए उन्हें अचेलावस्था का पालन करना आवश्यक बताया गया जबकि बीच के बाईस तीर्थकरों के अनुयायी साधु स्वभावतः सरल और बुद्धिमान थे । अतः आवश्यकता पड़ने पर सचेलावस्था को भी विहित बना दिया गया ।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी साधु को अपरिग्रही होना आवश्यक बताया गया है ।` “आचारागसूत्र” एतदर्थ दृष्टव्य है । उसमें अचेलक साधु की प्रशंसा की गयी है और उसे वस्त्रादि से निश्चिन्त बताया गया है ।" "ठाणांग" (सूत्र १७१ ) में वस्त्र धारण करने के तीन कारणों का उल्लेख मिलता हैलज्जानिवारण, ग्लानि निवारण और परीषह निवारण | आगे पांच कारणों से अचेलावस्था की प्रशंसा की गई है - प्रतिलेखना की अल्पता, लाघवता, विश्वस्तरूपता, तपशीलता और इन्द्रिय निग्रहता । और भी अन्य आगमों में अचेलावस्था को प्रशस्त माना गया है । मात्र असमर्थता होने पर ही वस्त्रग्रहण करने की अनुज्ञा दी गई है । कालान्तर में वस्त्रग्रहण की प्रवृत्ति बढ़ती गई और उसी के साथ आगमों की टीकाओं और चूर्णियों आदि में अचेलकता के अर्थ में परिवर्तन किया जाने लगा ।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के कालतक स्थिति बिलकुल बदल गई । फलतः उन्हें आचार के दो रूप करना पड़े- जिनकल्प और स्थविरकल्प | जिनकल्प रूप अचेलकता का प्रतिपादक बना तथा स्थविरकल्प सचेलकता का । जम्बूस्वामी के मोक्ष जाने के बाद जिनकल्प को विच्छिन्न बता दिया गया । वृह-कल्पसूत्र और विशेषावश्यकभाष्य ( गाथा २५९८ - २३०१ ) में इसका विशेष विवेचन मिलता है । वहां अचेल के दो भेद कर दिये गये हैं- संताचेल और असंताचेल । संताचेल (वस्त्र रहते हुए भी अचेल) जिनकल्पी आदि सभी प्रकार के साधु कहलाते हैं और असन्ताचेल के अन्तर्गत मात्र तीर्थंकर आते हैं ।
१. पचाशक विवरण, १७.८.१०.
२. आचारंग, ५-१५० - १५२.
३. बाचादीनसून, १८२.
४. कानांगसूत्र, ५.