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को छोड़ने के लिए कहा पर उसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। तब आचार्य ने उन्हें बहुत समझाया। उनकी बात पर किसी शिष्य को क्रोध आया और उसने गुरु को अपने दीर्घ दण्ड से शिर पर प्रहार कर उन्हें स्वर्ग लोक पहुंचाया और स्वयं संघ का नेता बन गया । उसी ने सवस्त्र मुक्ति का उपदेश दिया और श्वेताम्बर संघ की स्थापना की।
(४) भट्टारक रत्ननन्दि का एक "भद्रबाहुचरित्र" (तृतीय परिच्छंद) मिलता है, जिसमें उन्होंने कुछ परिवर्तन के साथ इस घटना का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि दुर्भिक्ष पड़ने पर भद्रबाहु ससंघ दक्षिण गये । पर रामिल्ल, स्यूलाचार्य आदि मुनि उज्जयिनी में ही रह गये । कालान्तर में संघ में व्याप्त शिथिलाचार को छोड़ने के लिए जब उन्होंने कहा तो संघ ने उन्हें मार डाला । उन शिथिलाचारी साधुओं से ही बाद में अर्धफलक और श्वेताम्बर संघ की स्थापना हुई।
इन कथानकों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भद्रबाहु की परंपरा दिगम्बर सम्प्रदाय से और स्थूल भद्र की परंपरा श्वेताम्बर सम्प्रदाय से जुड़ी हुई है । यह श्वेताम्बर सम्प्रदाय अर्घफलक संघ का ही विकसित रूप है । अर्धफलक सम्प्रदाय की उत्पत्ति वि. पू. ३३० में हुई और वि. सं. १३६ में वह श्वेताम्बर सम्प्रदाय के रूप में सामने आया । 'अर्धफलक सम्प्रदाय' का यह रूप मथुरा कंकाली टीले से प्राप्त शिलापट्ट में अंकित एक जैन साधु की प्रतिकृति में दिखाई देता है । वहां वह साधु 'कण्ह' वायें हाथ से वस्त्र खण्ड के मध्य भाग को पकड़कर नग्नता को छिपाने का यत्न कर रहा है । हरिभद्र के 'सम्बोधप्रकरण' से भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय के इस पूर्व-रूप पर प्रकाश पड़ता है । कुछ समय बाद उसी वस्त्र को कमर में धागे से बांध दिया जाने लग।। यह रूप मथुरा में प्राप्त एक आयागपट्ट पर उक्ति रूप से मिलताजुलता है । इस विकास का समय प्रथम शताब्दि के आसपास माना जा सकता है । एक अधिपति अथवा महाराज्ञी की आज्ञा से ही एक संघ विशेष में इतना परिवर्तन हो गया हो, यह बात तथ्यसंगत नहीं लगती । वस्तुतः उसकी पृष्ठभूमि में मूल रूप से शिथिलाचार की बढ़ती हुई प्रवृत्ति रही होगी। जिनकल्प को मूलरूप माननं और स्थविरकल्प को उत्तर काल में उत्पन्न स्वीकार करने से भी यही बात पुष्ट होती है।
ऊपर के कथानकों से यह भी स्पष्ट है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के बीच विभेदक रेखा खींचने का उत्तरदायित्व वस्त्र की अस्वीकृति
१. मावसंग्रह-गा. ५३-७२.