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दुष्काल को निकट भविष्य में जानकर मुनि विशाखाचार्य (चन्द्रगुप्त मौर्य) के नेतृत्व में मुनि संघ को दक्षिणापथवर्ती पुन्नाट नगर भेज दिया और स्वयं भाद्रपद देश में जाकर समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग किया। इधर दुष्काल की समाप्ति हो जाने पर विशाखाचार्य ससंघ वापिस आ गये। संघ में से रामिल्ल, स्थविर स्थूल और भद्राचार्य सिन्धु देश की ओर चले गये थे । वहां भिक्ष पीड़ितों के कारण लोग रात्रि में भोजन करते थे। फलतः मनियोंनिर्ग्रन्थों को भी रात्रि भोजन प्रारम्भ करना पड़ा। एक बार अंधकार में भिक्षा की खोज में निकले निर्ग्रन्थ को देखकर भय से एक गर्भिणी का गर्भपात हो गया। इस घटना के मूल कारण को दूर करनं के लिए श्रावकों ने मुनियों को अर्धफलक (अर्धवस्त्रखण्ड ) धारण करने के लिए निवेदन किया । सुभिक्ष हो जानेपर रामिल्ल, स्थविर स्थूल और भद्राचार्य ने तो मुनिवत धारण कर लिया, पर जिन्हें वह अनुकूल नहीं लगा, उन्होंने जिनकल्प के स्थानपर अर्षफलक संप्रदाय की स्थापना कर ली। उत्तरकाल में इसी अर्धफलक सम्प्रदाय से काम्बल सम्प्रदाय, फिर यापनीय संघ और बाद में श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई।
(२) देवसेन के 'दर्शनसार" (वि. सं. ९९९) में एतत् सम्बन्धी कथा इस प्रकार मिलती है
विक्रमाधिपति की मृ यु के १३६ वर्ष बाद सौराष्ट्र देश के बलभीपुर में श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई । इस संघ की उत्पत्ति में मूल कारण भद्रबाहुगणि के आचार्य शांति के शिष्य जिनचन्द्र नामक एक शिथिलाचारी साधु था । उसने स्त्री-मोक्ष, कवलाहार, सवस्त्रमुक्ति, महावीर का गर्म परिवर्तन आदि जैसे मत प्रस्थापित किये थे।
दर्शनसार में व्यक्त ये मत निःसन्देह श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध हैं। उनके संस्थापक तो नहीं, प्रबल पोषक कोई जिनचन्द्र नामक आचार्य अवश्य हुए होंगे। पर चूंकि आचार्य शान्ति और उनके शिष्य जिनचन्द्र का अस्तित्व देवसेन के पूर्व नहीं मिलता अतः ये जिनचन्द्र जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (सप्तम शती) होना चाहिए । उन्होंने 'विशेषावश्यकभाष्य' में उक्त मतों का भरपूर समर्थन किया है।
(३) एक अन्य देवसेन ने भावसंग्रह में भी श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति इसी प्रकार बतायी है । थोड़ा-सा जो भी अन्तर है, वह यह है कि यहां 'शान्ति' नामक आचार्य सौराष्ट्र देशीय बलभीनगर अपने शिष्यों सहित पहुंचे। पर वहां भी दुष्काल का प्रकोप हो गया । फलतः साधु वर्ग यथेच्छ भोजनादि करने लगा। दुष्काल समाप्त हो जाने पर शान्ति आचार्य ने उनसे इस वृत्ति
१.वर्णनसार-११-१४.