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और ठण्ड दोनों का अनुभव एक साथ किया । तब उसने यह मत प्रतिपादित किया कि एक समय में दो क्रियाओं का अनुभव हो सकता है। नदी में चलने पर ऊपर की सूर्य - उष्णता और नदी की शीतलता, दोनों का अनुभव होता है । गंग ने इस सिद्धान्त के आधार पर अपने द्विक्रिया वाद की स्थापना कर ली । तथ्य यह है कि मन की सूक्ष्मता के कारण यह आभास नहीं हो पाता । क्रिया का वेदन तो क्रमशः ही होता है ।
६. षष्ठ निम्हब - रोहगुप्त - त्रैराशिक वाद :
एक बार अंतरंजिका नगरी में रोहगुप्त अपने गुरु की वन्दना करने जा रहा था । मार्ग में उसे अनेक प्रवादी मिले जिन्हें उसने पराजित किया । अपने बाद-स्थापन काल में उसने जीव और अजीव के साथ ही 'नो जोव' की भी स्थापना की । गृहकोकिलादि को उसने 'नो जीव' बतलाया । समाभिरूढ नय को न समझने के कारण उसने इस मत की स्थापना की । इसे त्रैराशिक वाद कहा गया है ।
७. सप्तम निन्हव-गोष्ठामाहिल अबद्ध वाद :
एक बार दशपुर नगर में गोष्ठामाहिल कर्मप्रवाद पढ रहा था । उसमें उसने पढ़ा कि कर्म केवल जीव का स्पर्श करके अलग हो जाता है । इस पर उसने सिद्धान्त बनाया कि जीव और कर्म अबद्ध रहते । उनका बन्ध ही नहीं होता । व्यवहारनय को न समझने के कारण ही गोष्ठामाहिल ने यह मत प्रस्थापित किया ।
८. अष्टम निन्हव बोटिक - दिगम्बर संप्रदाय की उत्पति - शिवभूति :
रथबीरपुर नामक नगर में शिवभूति नामक साधु रहता था । वहां के राजा ने एक बार बहुमूल्य रत्न कंबल भेंट किया । शिवभूति के गुरु आर्यकृष्ण ने कहा कि साधु के मार्ग में अनेक अनर्थ उत्पन्न करनेवाले इस कम्बल को ग्रहण करना उचित नहीं । पर शिवभूति को उस कम्बल में आसक्ति उत्पन्न हो गई । यह समझकर आर्यकृष्ण ने शिवभूति की अनुपस्थिति में उस कम्बल के पादप्रोच्छनक बना दिये । यह घटना देखकर शिवभूति क्रोधित हो गया । एक समय आर्यकृष्ण जिनकल्पियों का वर्णन कर रहे थे । और कह रहे थे कि उपयुक्त संहनन आदि के अभाव होने से उसका पालन सम्भव नहीं शिवभूति ने कहा- "मेरे रहते हुए यह अशक्य कैसे हो सकता है !" यह कहकर अभिनिवेशयश निर्वस्त्र होकर यह मत स्थापित किया कि वस्त्र कषाय का कारण होने से परिग्रह रूप है । अतः स्याज्य है ।