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और स्वीकृति पर है । 'उत्तराध्ययन' में केशी और गौतम के बीच हुए संवाद का उल्लेख है । केशी पार्श्वनाथ परम्परा के अनुयायी है और गौतम महावीर परम्परा के । पार्श्वनाथ ने 'सन्तरुत्तर' (सान्तरोत्तर) का उपदेश दिया और महावीर ने अचेलकता का । इन दोनों शब्दों के अर्थ की ओर हमारा ध्यान श्री. पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने आकर्षित किया है । उन्होंने लिखा है कि उत्तराध्ययन की टीकाओं में 'सान्तरोत्तर का अर्थ महामूल्यवान् और अपरिमित बस्त्र (सान्तर-प्रमाण और वर्ण में विशिष्ट' तथा उत्तर-प्रधान) किया गया है और उसी के अनुरूप अचेल का अर्थ वस्त्राभाव के स्थान में क्रमशः कुत्सितचेल, अल्पचेल, और अमूल्यचेल मिलता है। किन्तु आचारंगसूत्र २०९ में आये 'संतरुत्तर' शब्द का अर्थ दृष्टव्य है। वहां कहा गया है कि तीन वस्त्रधारी साधुनों का कर्तव्य है कि वे जब शीत ऋतु व्यतीत हो जाये ओर ग्रीष्म ऋतु आ जाये और वस्त्र यदि जीर्ण न हए हों तो उन्हें कहीं रख दे अथवा सान्तरोत्तर हो जाये । शीलांक ने 'सान्तरोत्तर' का अर्थ किया हैसान्तर है उत्तर ओढ़ना जिसका अर्थात्, जो आवश्यकता होने पर वस्त्र का उपयोग कर लेता है, अन्यथा उसे पास रखे रहता है।
केशी और गौतम के संवाद' में आये हुए 'सान्तरोत्तर' का तात्पर्य भी यही है कि पार्श्वनाथ परम्परा के साधु अचेलक तो थे पर आवश्यकता पड़ने पर वे वस्त्र भी धारण कर लेते थे जबकि महावीर के धर्म में साधु पूर्णतः अचेलक अवस्था में रहता था। साधु सचेलक वही हो सकता था जो अचेलक होने में असमर्थ रहता था। पालि साहित्य में निग्गण्ठ साधुओं को जो 'एकसाटका' कहा गया है वह भी हमारे मत का पोषण करता है ।
पार्श्वनाथ परम्परा में सचेलावस्था का भी प्रवेश होने से महावीर के समय तक उसमें चारित्रिक वतन हो गया था। इसलिए उस परम्परा के अनुयायी साधुओं को "पासावज्जिय" (पाश्र्वापत्यीय)अथवा "पासज्ज" (पावस्थ) कहा जाने लगा। पासज्ज का तात्पर्य है कर्म से बंधा हुमा साधु । यह शब्द इतना अधिक प्रचलित हो गया कि चारित्र से पतित साधु का वह पर्यायवाची बन गया।' सूत्रकृतांग में पार्श्वस्थ साधुओं को अनार्य, बाल, जिनशासन से विमुख एवं स्त्रियों में आसक्त कहा गया है। "भगवती आराधना" (गापा
१. जैन साहित्य का इतिहासः पूर्व पीठिका पृ. ३९७-९८. २. उत्तराध्ययन, २३.२९-३३. ३. तत्रिदं मन्ते, पूरणेन कस्सपेन लोहिताभिजातिपणमत्ता, निग्गा एकसाटका, अंगुत्तर.
निकाय, ६.६.३. ४. सूचकतांग, १-१-२-५ वृत्ति. ५. सूमातांग, ३-४-३ वृत्ति.