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से भिन्न) रहे होंगे। नियुक्तियों में आर्यवज, आर्यरक्षित, पादलिताचार्य, फलिकाचार्य, शिवभूति आदि अनेक आचार्यों के नामों के उल्लेख मिलते हैं । ये आचार्य निश्चित ही उक्त प्रथम और द्वितीय भद्रबाहु से उत्तर काल में हुए हैं। प्रथम भद्रबाहु का समय ई. पू. ३८४-३६५ (वी. नि. सं. १३३१६२) माना गया है। द्वितीय भद्रबाहु यशोभद्र के शिष्य तथा लोहाचार्य के गुरु थे । उनका समय ई. पू. ३५-१२ (वी. नि. ४८२-१५) है । द्वितीय भद्रबाहु यशोभद्र के शिष्य तथा लोहाचार्य गुरु थे। उनका समय ई. पू. ३५१२ (वी. नि. ४८२-१५) है।
भद्रबाहु चरित्र के अतिरिक्त भद्रबाहु के चरित विषयक और भी अनेक अन्य उपलब्ध है- देवधिक्षमाश्रमण की स्थविरावली, भद्रेश्वर सूरि की कहावली, तित्योगालि प्रकीर्णक, आवश्यक णि, आवश्यक पर हरिभद्रीया वृत्ति तथा हेमचन्द्र सूरि के त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित का परिशिष्टपर्वन् । उनमें उपलब्ध विविध कथायें ऐतिहासिक सत्य के अधिक समीप नहीं लगतीं। मेरुतुंगाचार्य की प्रबन्ध चिन्तामणि ओर राजेश्वर सूरि का प्रबन्ध कोष भी इस सम्बन्ध में दृष्टव्य है।
प्रवत्त चिन्तामणि' में एक किंवदन्ति का उल्लेख है कि भद्रबाहु वराह मिहिर के सहोदर थे। ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न ये दोनों भाई कुशल निमित्तवेत्ता थे । इन दोनों भाइयों में भद्रबाहुने जैन दीक्षा ले ली पर वराहमिहिर ने स्वधर्म परित्याग नहीं किया । वराहमिहिर के पुत्र के सन्दर्भ में भद्रबाहु का निमित्तज्ञान वराहमिहिर की अपेक्षा प्रगल्भ निकला । फलतः बराह मिहिर जैनों से द्वेष करने लगे । इस देषभाव के परिणाम स्वरूप वराहमिहिर काल कवलित होने पर व्यन्तर जाति के देव हुए और जनों पर घनघोर उपसर्ग करने लगे। इन उपसर्गों को दूर करने के लिए भद्रबाह ने उपसग्गहरस्तोय लिखा । प्रबन्ध कोश में इससे भिन्न अन्य कया का उल्लेख है। तदनुसार वराहमिहिर ओर भद्रबाहु, दोनों ने जैन मुनिव्रत ग्रहण किये । इनमें भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वज्ञान के धारी थे। जिन्होंने नियुक्तियों तथा भावाहुसंहिता
से ग्रन्यों की रचना की । परन्तु स्वभाव से उद्धत होने के कारण आचार्य बराहमिहिर को जैन मुनिदीक्षा त्यागकर पुनः ब्राह्मण व्रत धारण करना पड़ा। इसी के पश्चात् उन्होंने वृहत्संहिता लिखी । यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रबन्ध कोष के पूर्ववर्ती अन्य किसी ग्रन्थ में भद्रबाहु को भद्रबाहु संहिताकार बपका पराहमिहिर का सहोदर नहीं बताया गया। प्रबन्धकोश' में भी इसीसे मिलतीजुलसी घटना का उल्लेख मिलता है।
१. प्रबन्ध चिन्तामणि-सं मुनिजिनविजय, प्रकाश ५, पृ. ११८, २. प्रासकोषा-सं- मुनिशिन विजय, पृ. २