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(५) भौगोलिक और राजनीतिक वर्णन.
(६) वृहत्संहिता की अपेक्षा विषय वर्णन में नवीनता ।
इन सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि भद्रबाहुसंहिता की रचना ११ - १२वीं शती से पूर्ववर्ती नही होना चाहिए। मूल ग्रन्थ प्राकृत में रहा हो, यह भी समीचीन नहीं जान पड़ता । बौद्ध साहित्य के अवदान साहित्य की श्रेणी में भी इसे नहीं रखा जा सकता क्योंकि प्राकृत के रूप इतने अधिक सं.भ. द्रमें नहीं मिलते। अतः इस ग्रन्थ की उपरितम सीमा १२-१३ वीं शती मानी जानी चाहिए ।
संघभेव :
प्रायः हर तीर्थकर अथवा महापुरुष के परिनिर्वृत अथवा देहावसान हो जाने के बाद उसके संघ अथवा अनुयायियों में मतभेद पैदा हो जाते हैं । इस मतभेद के मूल कारण आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों के परिवर्तित रूप हुआ करते हैं । मतभेद की गोद में विकास निहित होता है जिसे जागत का प्रतीक कहा जा सकता है । पार्श्वनाथ और महावीर के संघ में भी उनके निर्वाण के बाद मतभेद उत्पन्न होना प्रारम्भ हो गया था । उस मतभेद के पीछे भी आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के बदलते हुए रूप थे ।
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इस प्रकार महावीर के निर्वाण के बाद उनका संघ अन्तिम रूप में दो भागों में विभक्त हो गया - दिगम्बर और श्वेताम्बर । संघभेद के संदर्भ में दोनों सम्प्रदायों में अपनी-अपनी परंपराये हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय पूर्णतः अचेलत्व को स्वीकार करता है पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय सवस्त्र अवस्था को भी मानता प्रदान करता है । दोनों परम्पराओं का अध्ययन करने से यह स्पष्ट है कि मतभेद का मूल कारण वस्त्र था ।
पालि साहित्य से पता चलता है कि निगण्ठनातपुत्त के परिनिर्वाण के बाद ही संघभेद के बीज प्रारम्भ हो चुके थे । आनन्द ने बुद्ध को चुन्द का समाचार दिया था कि महावीर के निर्वाण के उपरान्त उनके अनुयायियों में परस्पर विवाद और कलह हो रहा है। वे एक दूसरे की बातों को अप्रामाणिक सिद्ध कर रहे हैं । ' बुद्ध ने इसका कारण बताया कि निगण्ठों के तीर्थंकर निगण्ठ नातपुत्त न तो सर्वज्ञ हैं और न ठीक तरह से उन्होंने धर्म देशना दी है । अट्ठकथा में इसका विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि निगण्ठनातपुत्तने अपने अपने सिद्धान्तों की निरर्थकता को समझकर अपने अनुयायियों से कहा था कि वे
१. मज्झिमनिकाय, मा. २. पू - ४२३ ( रो.) ; दीघनिकाय, मा. ३. पृ. ११७, १२० ( रो.), २. दीघनिकाय, मा. ३, पू. १२१.