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प्रथम परिवर्त
जैन संस्कृति को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारतीय संस्कृति को दो धाराएं:
भारतीय संस्कृति मूलतः दो संस्कृतियों का समन्वित रूप है-एक वैदिक संस्कृति और दूसरी श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति 'ब्रह्म'की पृष्ठभूमि से उद्भूत हुई है जबकि श्रमण संस्कृति सम शब्द के विविध रूपों और अर्यों पर आधारित है। प्रथम में परतन्त्रता, ईश्वरावलम्बन और क्रियाकाण्ड की चरम प्रवृत्ति देखी जाती है, जबकि द्वितीय संस्कृति स्वातन्त्र्य, स्वावलम्बन विशुद्ध एवं आत्मा की सर्वोच्च शक्ति पर विश्वास करती है ।
श्रमण का शब्दार्थ :
श्रमण में पालि-प्राकृत का मूल शब्द 'समण' है जिसका संस्कृत रूपान्तर श्रमण, शमन और समन होता है । अतः श्रमण संस्कृति उक्त श्रम, शम और सम के मूल सिद्धान्तों के धरातल पर अवलम्बित है। इसका अर्थ हम इस प्रकार कर सकते हैं
(१) श्रमण शब्द श्रम् धातु से निष्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ है उद्योग करना, परिश्रम करना। इसमें तथाकथित ईश्वर मार्ग-द्रष्टा है, सृष्टि का कर्ता धर्ता-हर्ता नहीं । इसलिए उसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने श्रम और सत्कर्मों से स्वयं ईश्वर बन सकता है । वह ईश्वर के प्रसाद पर निर्भर नहीं है, बल्कि आत्मविकास की उसके स्वयं का पुरुषार्थ उसे चरम स्थिति तक पहुंचा सकता है।
(२) शमन का अर्थ है-शान्त करना । अर्थात् श्रमण अपनी चित्तवृत्तियों अथवा विकार-भावों का शमन करता है। उसकी मूल साधना है-आत्मचिन्तन अथवा भेदविज्ञान। चाहे ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र, सभी को समान रूप से बात्मचिन्तन करने एवं मुक्ति प्राप्त करने का अधिकार है। वहां कोई जाति विशेष का बन्धन नहीं। साधक इस शमता से अनु-मित्र, बन्धु-बान्धव सुख-दुःख, प्रशंसा-निन्दा, मिट्टी-सोना तथा जीवन-मरण जैसे विषयों में समता बुद्धि जागरित करता है।
१. न पीसई गाइपिसेन कोई-उत्तराष्पयन, १२-३७.