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समसत्तुबन्धुवग्गो सम सुहदुक्खो पसंसणिदसमो । समलोट्ठकंचणो पुण जीविदामरणे समो समणो ॥
(३) सम शब्द का अर्थ है - समानता । श्रमण संस्कृति में सभी जीव समान हैं । उनमें वर्णादिजन्य भेदभाव अथवा असमानता नहीं होती । कोई भी व्यक्ति मात्र गोत्र अथवा धन से श्रेष्ठ नहीं होता, बल्कि उसकी श्रेष्ठता तो उसके कर्म विद्या, धर्म और शील से आंकी जाती है ।" आत्मा अथवा चित्त स्वरूपतः ज्ञानवान् निर्मल और निर्विकार है । हमारे कर्म उसके मूल स्वरूप को आवृत कर लेते हैं । आत्मा के इस विकार-भाव को दूर करने के लिए विशुद्ध ज्ञान-भाव पूर्वक अहिंसात्मक तपो-साधना अपेक्षित है । यही साधना समानता की जननी है । इसी को चारित्र, धर्म अथवा सम कहा गया है । "
इस प्रकार श्रमण संस्कृति का मूल धरातल श्रम, शम और सम के सिद्धान्तों पर आधारित है । ये तीनों सिद्धान्त विशुद्ध मानवता की भूमि पर खडे हुए है । वर्गभेद, वर्णभेद, उपनिवेशवाद, आदि जैसे असमानतावादी तत्व श्रमण संस्कृति से कोसों दूर हैं । यह उसकी अनुपम विशेषता है ।
प्राचीन ऐतिहासिक भूमिका
फुलकर- एक समाज व्यवस्थापक :
जैन दर्शन की दृष्टि से सृष्टि अनादि और अनन्त है । वह किसी ईश्वर की निर्मिति का फल नहीं, बल्कि स्वाभाविक परिणमन का फल है जो निमित्त और उपादान जैसे कारणों पर अवलम्बित है । जैन पौराणिक परम्परा हमारे भारतवर्ष के उस समय के इतिहास को प्रस्तुत करती है जबकि यहां नागरिक सभ्यता का विकास नहीं हुआ था । सम्भव है, समूची सृष्टि के विकासात्मक तथ्य को ही इस रूप में प्रस्तुत किया गया हो। आचार्यों ने इस विकास को दो भागों में विभाजित किया है-भोगभूमि और कर्मभूमि । भोगभूमि काल में
१. प्रवचनसार, ३-४१.; दशवेकालिकवृत्ति, १- ३.
२. कम्मुणा बम्मणो होइ कम्मुणा होइ खत्तियो ।
बइस्सो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा ।। उत्तराध्ययन । २५-३१ ॥
कम्मं विज्जा च धम्मो च सीलं जीवितमुत्तमं ।
एतेन मच्चा सुज्झन्ति न गोत्तेन धनेन वा ॥ विसुद्धिमग्ग - १ ॥
३. चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिद्दिट्ठो । मोहक्खोहविहीणी परिणामो अप्पणो हि समो ॥
--प्रवचनसार, १.७