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महावीर पर्यन्त जैनधर्म की इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म भारत का प्राचीनतम धर्म रहा है और उसने व्यक्ति समाज, राष्ट्र और विश्व की एकता और अभ्युनति की दृष्टि से जी सिद्धान्त प्रस्थापित किये वे आज भी उतने ही उपयोगी है जितने उस समय थे। नेतर साहित्य के कतिपय लुप्त प्राचीन जैन उल्लेख
प्राचीन जैनेतर साहित्य में जैनधर्म सम्बंधी उतरण काफी मिला करते थे पर धीरे-धीरे सम्प्रदायाभिनिवेश से उनका लोप कर दिया गया। पं. टोडरमल जी ने 'मनुस्मृति' और 'यजुर्वेद' से निम्नलिखित उवरणों को उद्धृत किया है१. कुलदिवीजं सर्वेषां प्रथमो विमल वाहनः ।
चक्षुष्मान् यशस्वी वाभिचन्द्रोऽथ प्रसेनजित ।। मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुल सत्तमाः । अष्टमो मरुदेव्यां तु नाभेजाति उरुक्रमः ।। दर्शयन् वर्त्म वीराणां सुरासुरनमस्कृतः ।
नीतित्रितयकर्ता यो युगादी प्रथमो जिनः ।। मनुस्मृति ॥ २. ॐ नमो अरहतो ऋषभाय। ॐ ऋषभपवित्रं पुरुहूतमध्वरं यज्ञेषु नग्नं
परमं माहसंस्तुतं वरं शत्रु पशुरिन्द्रमाहुतिरिति स्वाहा । ॐ त्रातारमिंद्र ऋषभं वदन्ति । अमृतारमिन्द्रं हवे सुगतं सुपावमिन्द्रं हवे शक्रमजितं तद्व. घंमानपुरुहूतमिन्द्रमाहुरिति स्वाहा । ॐ नग्नं सुधीरं दिग्वाससं ब्रह्मगर्भ सनातनं उषमि वीरं पुरुषमहन्तमादित्यवर्ण तमसः पुरस्तात स्वाहा । ॐ स्वस्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्ताक्ष्यों अरिष्टनेमि स्वस्तिनो वृहस्पति र्दधातु । दीर्घायुस्त्वायुबलायुर्वा शुभाजातायु । ॐ रक्ष रक्ष अरिष्टनेमि स्वाहा । वामदेव शान्त्यर्थमनुविधीयते सोऽस्माकं अरिष्टनेमिः स्वाहा ।
इन उद्धारणों में उल्लिखित तीर्थकरों के नाम और उनके प्रति अभिव्यक्त समाज दृष्टव्य है । पर आश्चर्य की बात है कि आज ये उवरण मनुस्मृति और यजुर्वेद के संस्करणों से क्यों और कैसे लुप्त हो गये, यह विचारणीय है।
मूलवैशम्पायन सहस्रनाम में "कालनेमिर्महावीरः शूरः शौरिजिनेश्वरः". कहा गया है पर आधुनिक संस्करणों में जिनेश्वर के स्थान पर जनेश्वर रस दिया गया है-कालनेमिर्महावीरः शौरिशूर जनेश्वरः" ।'
१. महाभारत, अनुशासनपर्व, १४८, ८२. २. महाभारत (गोरखपुर), १९५८ पृ. ६०४३.