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होकर देवता स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं । सार्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर वे मौनेय की अनुभूति में कहते हैं-"मुनिभाव से प्रमुदित होकर हम वायुभाव में स्थित हो गये। मर्यों ! तुम हमारा बाह्य शरीर मात्र देखते हो। हमारे माभ्यन्तर शरीर को नहीं देख पाते।" यह वर्णन निश्चित ही किसी बैविकेतर तपस्वी का है और वह तपस्वी ऋषभदेव होंगे । तैत्तरीयारण्यक में इन्हीं वातरशना मुनियों को "श्रमण" और "उर्ध्वमन्थी" भी कहा गया है।
"वातशरना ह वा ऋषभः श्रमणा उर्ध्वमन्थिनो बभूतुः ।। श्रीमद्भागवत (५.३.२०), वृहदारण्यक (४.३.२२), रामायण (बालकाण्ड १४-२२) आदि वैदिक ग्रन्थों में भी बातरशना मुनियोंका सम्बन्ध श्रमण सम्प्रदाय से स्थापित किया गया है। जिनसेन ने 'वातरसन्' शब्द का अर्ष निर्वस्त्र निर्ग्रन्थ किया है।
केशी ऋषभ : एक अन्यत्र स्थानपर ऋग्वेद में ही केशी की भी स्तुति की गई है
केश्याग्नि केशीविषं केशी विति रोदशी।
केशी विश्वं स्वदूंशे केशीदं ज्योति रुच्यते ॥' अर्थात् केशी, अग्नि, जल तथा स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है। केशी समस्त विश्व के तत्वों का दर्शन कराता है। केशी ही प्रकाशमान ज्योति (कैवल्यज्ञानी) कहलाता है। यहां केशी का अर्थ ऋषभदेव है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में ऋषभदेव की प्रतिमा में केशों के बने रहने की घटना को चामत्कारिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। जो भी हो, पर यह तो निश्चित है कि केशी और ऋषभ पर्यायवाची शब्द हैं। कहीं-कहीं केशी को विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त किया गया है
ककर्दवे ऋषभो युक्त आसीद् वावचीत्सारथिरस्य केशी।
दुधेर्युक्तस्य द्रवतः सहानसऋच्छन्तिष्मा निष्पदो मुदग्लानीम् ॥ १. तैत्तिरीयारण्यक, २.७.१. २. दिग्वासा वातरसनो निर्ग्रन्येशो निरम्बरः, आदिपुराण. ३. ऋग्वेद, १०.१३६.१. ४. वमस्कार, २. सू.-३० ५. ऋग्वेद, १०.९.१०२.६०