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९ बलमा-३७) अचल, ३८) विषय, ३९) भद्र, ४०) सुप्रभ, ४१) सुदर्शन, ४२) आनन्द, ४३) नन्दन, ४) पद्म, और ४५) राम. __ ९वासुदेव-४६) त्रिपृष्ठ, ४७) विपृष्ठ, ४८) स्वयंभू, ४९) पुरुषोत्तम, ५०)पुरुषसिंह, ५१)पुरुष पुण्डरीक, ५२)दत्त, ५३)नारायण, और ५४)कृष्ण,
९ प्रतिवासुदेव-५५) अश्वग्रीव, ५६) तारक, ५७) मेरक, ५८) मधु, ५९) निशुम्भ, ६०) बलि, ६१) प्रहलाद, ६२) रावण,और ६३) जरासंध. भारत की प्राचीन मूल जातियां :
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने प्राचीन भारत वर्ष से सम्बद्ध मनुष्य जाति को तीन प्रधान समुदायों में विभक्त किया है
१) प्रथम समुदाय उत्तरी भारत के पूर्वी मैदानी भाग में गंगा-यमुना के दो आवे से लेकर अंग-मगध पर्यन्त निवास करता था । वह समाज शान्तप्रिय, मूर्तिपूजक, अध्यात्मवादी, आत्मवादी, अहिंसक, एवं निवृत्तिपरक था । सम्भवतः इसीलिए वे अपने आपको "आर्य" कहने लगे । कुलकरों का जन्म इसी समुदाय में हुआ था । अतः यह समुदाय 'मानव वंश' के नाम से प्रसिद्ध हुमा ।
२) द्वितीय समुदाय दक्षिण तथा पूर्व के अधिकतर पर्वतीय प्रदेशों में सीमित था। वह आध्यात्मिक दृष्टि से तो मानवों की अपेक्षा हीन था पर कलाकौशल एवं उद्योगधन्धों में अधिक प्रगतिशील था। उसने विज्ञान का विकास किया । इस समुदाय में नाग, यक्ष, वानर आदि नाम के अनेक फुल थे। इन्हें 'विद्याधर' कहा गया है। इन्हीं विद्याधरों को 'द्रविड' की संज्ञा दी गई है। मानवों और विद्याधरों के बीच सभी प्रकार के सम्बन्ध रहे हैं।
३) तृतीय समुदाय मानव वंश की ही एक शाखा थी, जो बहुत पहले मध्यप्रदेशीय मूल मानव जाति से पृथक् होकर उत्तर-पश्चिम पर्वतीय प्रदेशों की ओर चली गई थी। घुमक्कड़ स्वभाव होने के कारण यह जाति मध्यएशिया तक फैल गई । वहां से एक शाखा कुछ उत्तर की ओर जा वसी, दूसरी पश्चिम की ओर यूरोप आदि में और तीसरी ईरान में वस गई। कालान्तर में इन्हीं को 'इन्डोआर्यन' नाम से अभिहित किया जाने लगा।
डॉ. जैन ने यह निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न किया है कि भारत वर्ष की आदिम मानव जातियां जैन संस्कृति-निष्ठ थी। मार्य और द्रविड संस्कृति मुलतः श्रमण संस्कृति रही है । डॉ. जैन का यह निष्कर्ष असंगत भी नहीं कहा
१. भाविक एक पुष्टि, पृ. २१-२३.