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बनेकान्तबाद उसके प्रधान साधन रहे है। साधनों की पवित्रता साब की पवित्रता को जन्म देती है। जैन धर्म के विकास का हर परण इसी पवित्रता को समेटे या है। तीयंकर महावीर ने इसी परम्परा का पल्लवन किया।
५. जैन साहित्य की विशालता मोर प्रगाढता मनी तक उपेनित-सी ही है। उसे धार्मिक साहित्य कहकर विद्वानों ने खूब कोसा बोर उपेक्षित किया। किसी भी संसत नववा हिन्दी के इतिहास के लेखक ने सहवतापूर्वक अपने ग्रन्थ में उसे समुचित स्थान देने का साहस नहीं किया। साहित्य बोर वन परस्पर मनुस्यूत रहते है। लेखक का दर्शन उसके साहित्य में प्रतिविम्बित हुए बिना रह नहीं सकता। कालिदास, अश्वघोष, भवभूति, कबीर, तुलसी बादि कवियों का साहित्य किसी न किसी दर्शन को अभिव्यक्त करता ही है। फिर धार्मिक साहित्य का केबल मात्र जैन साहित्य पर क्यो जकड़ दिया गया? प्रसन्नता की बात है कि अब धीरे-धीरे विद्वत्ता के क्षेत्र में निष्पक्षता बढ़ती चली जा रही है वीर जैन साहित्य श्री प्रकाशित होता चला जा रहा है। अभी भी सहस्रों अन्य मण्डारों मे अप्रकाशित पड़े हुए है। न जाने कितने अन्य तो दीमकों की चपेट में आ गये है, और बाते जा रहे हैं। फिर भी उन्हें बाहर की हवा नही मिल पा रही है । शोधकों को प्रकाशित अन्वों की पाण्डुलिपियाँ प्राप्त करने में जिन कठिनाइयो का सामना करना पड़ता है उन्हें हर किया जाना अपेक्षित है। जैन समाज का यह कर्तव्य है कि वह प्रतिष्ठानों की बोर ध्यान न देकर साहित्य प्रकाशन की बोर अपनी शक्ति लगाये। उसके लिए यही मानयन है।
६. वासनिक क्षेत्र में अहिंसा और बनेकान्तवाद का आधार लेकर जैन न सामने बाबा। दर्शन में तत्त्व, मान और पारिख सामाविष्ट हैं। जैनाचार्यो इन तीनों तत्वों पर निष्पक्ष रूप से गंभीर चिन्तन उपस्थित किया। ऐतिहासिक दृष्टि हमने इन तीनों तत्वों की तुब्बात्मक मीमांसा प्रस्तुत की है ताकि बोर बोट वर्शनों के साथ ही जैन सायन का कान के विविध पक्षों के विकास में वापसा योगदान रहा, यह भी विश्लेषित करने का प्रयल किया है। इसी न लाग, पाचागोरस, हेरगोटस, मोकीट्स, एम्पेडोक्लीष, पोटो, परस्पीरो, सेक्टस, एगिरिमाल , सून, बर्कल, कारहाणेल, काममिल पायाला विचारतों विषवाराणों की मी
MAA पाल्पा सिमानुसार पूर्वका सोडा मिनाया